सुरिंदर सूद
मादक पदार्थों पर गठित संयुक्त राष्ट्र आयोग ने दिसंबर में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कैनबिस यानी भांग को सर्वाधिक खतरनाक मादक पदार्थों की श्रेणी से हटा दिया गया। इसके बाद इस बहुपयोगी पौधे के लिए अपना खोया हुआ रुतबा हासिल करने का रास्ता साफ हो गया है। यह किसानों के लिए लाभदायक फसल होने के साथ ही प्रसंस्करण उद्योग के लिए कीमती कच्चे माल के रूप में भी इस्तेमाल हो सकता है। भारत ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया था जहां मौज-मस्ती, खाने और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए भांग उगाने और उसके सेवन का इतिहास रहा है। इसे धार्मिक मान्यता के साथ मादक पदार्थों की तुलना में कम नुकसानदायक नशे के तौर पर सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। कोकीन की तुलना में तो यह बहुत कम नुकसानदायक है।
फिर भी अमेरिका जैसे कुछ देशों के दबाव में भांग के उत्पादन पर रोक लगी हुई थी। भारतीय मादक पदार्थ एवं मानसिक उद्दीपक तत्त्व (एनडीपीएस) अधिनियम के तहत इसे 1985 में प्रतिबंधित पदार्थों की सूची में रख दिया गया था। संशोधन के बाद राज्य सरकारों को मौज-मस्ती से इतर मकसद से भांग की नियंत्रित एवं विनियमित खेती की मंजूरी देने का अधिकार दे दिया गया था लेकिन तमाम राज्यों ने ऐसा नहीं किया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सुझाव पर संयुक्त राष्ट्र ने भांग को हेरोइन एवं कोकीन जैसे अधिक नुकसानदायक एवं लत लगाने वाले पदार्थों से अलग कर दिया है। इस कदम ने भांग के औषधीय गुणों, औद्योगिक स्तर एवं खानपान में इस्तेमाल की संभावनाएं बढ़ा दी हैं। यह बदलाव भांग की खेती, अपने पास रखने, खरीद-बिक्री करने और मूल्य-संवद्र्धन को खुद ही अपराध-मुक्त कर देता है। भांग रखने के आरोपों के आधार पर प्रताडि़त या दंडित करने की आशंका भी कम हो गई है। हाल ही में हम एक बॉलीवुड अभिनेता की रहस्यमयी मौत के मामले में ऐसे आरोप देख चुके हैं। अब केंद्र को स्थानीय मादक पदार्थ अधिनियम पर ध्यान देकर उसका संशोधन करने की जरूरत है ताकि भांग के बारे में संयुक्त राष्ट्र संस्था के रुख में आए बदलाव को रेखांकित किया जा सके।
खासकर, भांग उत्पादकों एवं संभावित निवेशकों ने घरेलू एवं निर्यात बाजारों के क्षेत्र में विशाल अवसर की तलाश शुरू कर दी है। एक अमेरिकी सलाहकार फर्म के मुताबिक भांग का वैध बाजार वर्ष 2027 तक 3.6 अरब डॉलर हो सकता है जो 18 फीसदी से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर्शाता है। इस दौरान भारत में भांग पर आधारित आयुर्वेदिक एवं चिकित्सकीय उत्पादों का बाजार भी बढ़कर 12-14 करोड़ डॉलर हो जाने का अनुमान है। हाल में कई स्टार्टअप एवं छोटी औद्योगिक इकाइयां इस संभावना के दोहन के लिए सामने आ चुकी हैं।
भारतीय भांग (कैनबिस इंडिका) और उसके यूरोपीय संस्करण हेम्प (कैनबिस सतिवा) मोटे तौर पर एक जैसे ही गुण रखते हैं लेकिन उनके रासायनिक संयोजन एवं उपयोग में हल्का अंतर होता है। इन दोनों ही किस्मों के पौधों में कीमती रेशा एवं बीज होते हैं लेकिन कैनबिस इंडिका दो अहम मादक तत्त्वों कैनबिनॉयड के मामले में अधिक समृद्ध है। टेट्रा-हाइड्रो-कैनबिनॉल (टीसीएच) के नाम से चर्चित पहला तत्त्व बुनियादी मनो-सक्रिय पदार्थ है जो उसका सेवन करने वाले को 'ऊंचा उडऩे' का अहसास दिलाता है। कैनबिडॉयल (सीबीडी) कहा जाने वाला दूसरा तत्त्व कम उद्दीपक होता है और अपने उपचारीय गुणों की वजह से दवाओं में उसका खूब इस्तेमाल होता है।
भांग की पत्तियों एवं फूलों को सूखाकर तैयार किया गया चूर्ण भारत में चरस, गांजा और भांग के नाम से जाने जाते हैं जबकि दूसरे देशों में इसे मारियुआना, वीड, पॉट या डोप का नाम दिया जाता है। असल में, चरस और गांजे का इस्तेमाल एक लोकप्रिय पेय 'भांग' बनाने में भी अक्सर होता है। ताजी पत्तियों एवं फूलों को मसलने से निकला रेसिन हशीश कहा जाता है। इन पौधों के तने में मौजूद रेशों का इस्तेमाल ग्रामीण कलाकार रस्सियां बनाने एवं कुछ उपयोगी हस्तशिल्प उत्पाद तैयार करने में भी करते हैं।
भांग के पौधे के उपचारात्मक मूल्य को दर्शाने वाले साहित्य से पता चलता है कि यह ग्लूकोमा का इलाज कर सकता है, शरीर के अन्य हिस्सों में कैंसर का फैलाव रोक सकता है, अल्जाइमर रोग के बढऩे की रफ्तार धीमी करने में मददगार है। इसके अलावा यह तनाव कम करने और भोजन को ऊर्जा में तब्दील करने के लिए उपापचय तेज करने में भी मददगार माना गया है। कुछ अध्ययन दिमाग की रचनात्मक क्षमता में सुधार से भी इसका ताल्लुकजोड़ते हैं।
भांग के उम्दा किस्म के उत्पादों के लिए मशहूर हिमाचल प्रदेश इस औषधि की आर्थिक क्षमताओं के दोहन के लिए किसानों एवं उद्यमियों की मदद करने को आगे आया है। राज्य के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 11 मार्च को बजट भाषण में कहा कि भांग की नियंत्रित खेती को जल्द ही कानूनी बनाया जाएगा। कुल्लू जिले में स्थित मलाणा घाटी हशीश की खास किस्म के लिए दुनिया भर में मशहूर है। भांग की पत्तियों को हाथों के बीच रगड़कर यह रेसिन तैयार की जाती है। भारत के भीतर और बाहर इसके ऊंचे दाम मिलते हैं। मलाणा रेसिन के उत्पादक इसके लिए भौगोलिक सूचक (जीआई) निशान दिए जाने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके बौद्धिक संपदा अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सके। लेकिन इसकी संभावना कम ही है कि ऐसे उत्प्रेरकों की पैदावार को सरकारी नीति के तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा। आधिकारिक तौर पर भांग की खेती को कानूनी मान्यता देने का मतलब यह भी होगा कि मौज-मस्ती से इतर कामों में इस पौधे के वाणिज्यिक इस्तेमाल को बढ़ावा मिले।
बहरहाल हिमाचल प्रदेश दूसरे राज्यों के लिए एक नजीर पेश कर रहा है। केंद्र सरकार को भी भांग के पुनर्वास के लिए एक अनुकूल कानूनी व्यवस्था बनाने की जरूरत है। ऐसा होने पर ही भांग किसानों के लिए कमाऊ फसल, शिल्पकारों एवं उद्यमियों के लिए कीमती कच्चे माल और सरकार के लिए राजस्व का स्रोत बन पाएगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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