तमाल बंद्योपाध्याय
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने फरवरी के पहले सप्ताह में चालू वित्त वर्ष की आखिरी मौद्रिक नीति की घोषणा के दौरान सूक्ष्म वित्त क्षेत्र में सभी ऋणदाताओं के लिए एकसमान नियामकीय ढांचे की बात कही। इसके पीछे क्या वजह है? सूक्ष्म वित्त अब केवल सूक्ष्म वित्त संस्थानों (एमएफआई) का ही क्षेत्र नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति करीब एक दशक पहले थी, जब एक दक्षिणी राज्य ने इस उद्योग की कथित ज्यादतियों पर अंकुश लगाने के लिए अक्टूबर 2010 में एक राज्य कानून बनाकर लगभग अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। जाने-माने चार्टर्ड अकाउंटेंट और आरबीआई के बोर्ड में सबसे लंबे समय निदेशक रहे वाईएच मालेगाम की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के बाद दिसंबर 2011 में उद्योग के नियमन के लिए नियम बनाए गए। अब इन नियमों पर फिर से विचार करने की वजह एक अन्य कानून है, जिसे एक पूर्वी राज्य ने सूक्ष्म ऋण को नियंत्रित करने के लिए लागू करने की हाल में चेतावनी दी है।
आरबीआई के दिसंबर 2011 के नियमों से एनबीएफसी-एमएफआई का जन्म हुआ। इनका अगले कुछ वर्षों में तब तक सूक्ष्म ऋण उद्योग में दबदबा बना रहा, जब ऐसी सबसे बड़ी कंपनी संपूर्ण बैंक बन गई और 10 लघु वित्त बैंकों को कारोबार स्थापित करने के लिए लाइसेंस मिल गया। इसके अलावा कुछ विशुद्ध एनबीएफसी भी हैं, जो अलाभकारी संस्थाओं और न्यासों के अलावा सूक्ष्म ऋण देती हैं। इनका उद्योग में मामूली हिस्सा है। सीधे शब्दों में कहें तो सूक्ष्म वित्त में मौजूदगी केवल एनबीएफसी-एमएफआई की ही नहीं रह गई है।
अब इस चीज पर नजर डालते हैं कि कैसे पिछले एक दशक के दौरान इस कारोबार और ऋणदाताओं के स्वरूप में बदलाव आया है। ये आंकड़े बहुत से स्रोतों से जुटाए गए हैं, इसलिए ये वास्तविकता के नजदीक होने चाहिए। सूक्ष्म ऋण उद्योग मार्च 2010 में महज 22,544 करोड़ रुपये का था। आर्थिक संकट के बाद मार्च 2012 तक इसका आकार सिकुड़कर 17,262 करोड़ रुपये रह गया। मगर उसके बाद इसका पोर्टफोलियो बढ़ रहा है। दिसंबर, 2020 तक यह बढ़कर 2.33 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। सूक्ष्म कर्जदारों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई है। यह 2010 में करीब 2.7 करोड़ रुपये थी, जो अब 5.8 करोड़ से अधिक हो चुकी है। वहीं एनबीएफसी-एमएफआई की संख्या 264 से घटकर 202 रह गई है।
यहां कुछ और प्रासंगिक तथ्य दिए जा रहे हैं। एमएफआई कारोबार का दायरा वर्ष 2010 तक 25 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों और 375 जिलों तक सीमित था। इसने अब 37 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों और 600 जिलों में अपने पैर पसार लिए हैं। हालांकि शहरी कारोबार की हिस्सेदारी 27 फीसदी से घटकर 23 फीसदी पर आ गई है। वर्ष 2010 में अविभाजित आंध्र प्रदेश का एमएफआई कारोबार में सबसे अधिक हिस्सा था। उसके बाद कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और ओडिशा एमएफआई कारोबार के प्रमुख केंद्र (इसी क्रम में) थे। इन राज्यों का इस पूरे उद्योग में करीब तीन-चौथाई हिस्सा था। वर्ष 2020 तक पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर पहुंच गया और उसके बाद क्रमश: तमिलनाडु, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र हैं।
इस अवधि के दौरान ऋण का औसत आकार करीब चार गुना बढ़ गया है। यह मार्च 2010 में 9,766 रुपये था, जो मार्च 2020 में 36,904 रुपये हो गया है। उसके बाद यह घटकर (दिसंबर, 2020 में) 33,227 रुपये पर आ गया है। इस कारोबार में गैर-एनबीएफसी-एमएफआई का हिस्सा अब 68 फीसदी है, जो वर्ष 2010 में महज पांच फीसदी के आसपास था। एनबीएफसी-एमएफआई का हिस्सा 31 फीसदी है, जबकि अन्य की एक फीसदी हिस्सेदारी है। विभिन्न ऋणदाताओं का समूह एक ही ऋणी समूह को धन देता है। इसलिए यह तय है कि इसमें नियामकीय आर्बिट्राज होगा, जिससे ग्राहक अपनी क्षमता से अधिक कर्ज लेंगे।
अलग-अलग ऋणदाताओं के लिए नियमन कितने अलग-अलग हैं? एक ही ऋणी को दो से अधिक एनबीएफसी-एमएफआई ऋण नहीं दे सकती हैं और बैंकों समेत कुल ऋण की सीमा 1.25 लाख रुपये है। बैंकों के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं है। सूक्ष्म वित्त ऋणी के कर्ज की सीमा आरबीआई ने पहले ऋण के लिए 75,000 रुपये तय की है, जो बाद में 1,25,000 रुपये तक बढ़ सकती है। फिर यह सीमा केवल एनबीएफसी-एमएफआई के लिए है। बैंकों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है।
इसके अलावा भी ऐसे बहुत से नियम हैं, जो इसे असमान मौकों वाला क्षेत्र बनाते हैं। एनबीएफसी-एमएफआई के लिए ऋण की कीमत और प्रोसेसिंग फीस का नियमन किया जाता है, जबकि बैंकों पर ऐसा कोई बंधन नहीं है। इसी तरह एनबीएफसी-एमएफआई को 85 फीसदी ऋण बिना संपत्ति गिरवी रखे देने पड़ते हैं। असल में संपूर्ण बैंकों के 40 फीसदी ऋण तथाकथित प्राथमिकता क्षेत्र या समाज के कमजोर वर्गों (जिसके घटक परिवर्तनशील हैं) को दिए जाने चाहिए। लघु वित्त बैंकों के लिए ऐसी सीमा और अधिक 85 फीसदी है। लेकिन सभी प्राथमिकता ऋण संपत्ति गिरवी रखे बिना नहीं दिए जाते हैं। आखिर में एनबीएफसी-एमएफआई के 30,000 रुपये से अधिक के ऋण के लिए दो साल की सीमा है, लेकिन अन्य बिचौलियों पर ऐसे कोई प्रतिबंध नहीं हैं।
जब वे एक ही वर्ग यानी समाज के सबसे निचले वर्ग की ऋण जरूरतों को पूरा कर रहे हैं तो इन विसंगतियों को दूर नहीं किया जाना चाहिए? सभी वित्तीय बिचौलियों के लिए सूक्ष्म ऋणों के नियम समान होने चाहिए, भले ही उनका स्वरूप कैसा भी हो। बैंक ऋण देने के लिए जमाएं जुटाते हैं लेकिन एनबीएफसी-एमएफआई अपने कारोबार के लिए बैंकों से धन मिलने पर निर्भर होती हैं। बैंक ऐसे बिचौलियों को ऋण देते हैं क्योंकि इन्हें ऋण देने से उन्हें प्राथमिकता क्षेत्र को ऋण के लक्ष्य को पूरा करने में मदद मिलती है, जिसे वे प्रत्यक्ष ऋणों के जरिये हासिल करने में आम तौर पर नाकाम रहते हैं।
इस समय तुलनात्मक रूप से बड़ी एनबीएफसी-एमएफआई अपने कर्जदारों से अपनी औसत कोष लागत से 10 फीसदी अधिक या पांच बैंकों की औसत आधार दर का 2.75 गुना, इनमें से जो कम हो, वसूल कर सकती हैं। आम तौर पर ऐसी एमएफआई को ऋण लेने के लिए कुछ धन सावधि जमा (ऋण का औसतन 10 फीसदी) के रूप में ऋणदाताओं के पास रखना होता है। ऐसी जमाओं पर आमदनी उससे काफी कम होती है, जो वे उस धन को ऋण के रूप में देकर कमा सकते थे। इस लागत का ऋण की कीमत में आकलन नहीं किया जाता है। इससे भी अहम बात यह है कि क्या ब्याज दर को तय करने में कोई तर्क है, जब हर्जाना इतना अधिक है?
ब्याज दर को बाजार के भरोसे छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन ऋण के आकार और किसी ऋणी के ऋण लेने की संख्या को लेकर एकसमान नियम होने चाहिए ताकि उन्हें अत्यधिक कर्ज के बोझ से बचाया जा सके।
इसके अलावा आय सृजन ऋण देने के बजाय सूक्ष्म ऋणों को आजीविका ऋणों- स्वास्थ्य, शिक्षा एवं घर खरीदने के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। एनबीएफसी-एमएफआई को संपत्ति गिरवी रखकर 15 फीसदी से अधिक ऋण देने की मंजूरी दी जानी चाहिए ताकि अपने पोर्टफोलियो पर जोखिम कम कर सकें। विशेष रूप से ऐसे समय जब हर राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए ऋण माफी का इस्तेमाल करना चाहता है।
कृषि ऋण माफी एक परिचित पटकथा रही है, मगर असम एक कदम और आगे निकल गया है। सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष दोनों ने चुनावों से पहले ऋण माफी की घोषणा की है। यहआरबीआई के दायरे में नहीं है, लेकिन चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों के ऋण माफी के चुनावी वादे पर रोक लगानी चाहिए। अगर उनके दिल में गरीबों के लिए इतनी दया भावना है तो उन्हें ऋणदाताओं का कर्ज चुकाने में अपने पार्टी कोष का इस्तेमाल करना चाहिए।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड के वरिष्ठ सलाहकार हैं।)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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