गरीबी एक चक्रव्यूह है, इससे उबरने के लिए गरीबों को आत्म-नियंत्रण सिखाने की जरूरत (अमर उजाला)

संजय वर्मा


गरीबी फिर चर्चा में है! ‘ऑक्सफॉम इंटरनेशनल’ की हालिया रिपोर्ट बताती है कि कोरोना के बाद दुनिया में गैर-बराबरी बढ़ गई है। अमीरों को कोरोना की वजह से जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई उन्होंने कर ली है, जबकि गरीबों को नुकसान से उबरने में वर्षों लग जाएंगे। दुनिया में अमीरी बढ़ती जा रही है, पर गरीब और ज्यादा गरीब हो रहा है।

‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) बढ़ता जाता है, मगर ‘मानव विकास सूचकांक’ के मामले में दुनिया पिछड़ती जाती है। क्या यह उस पूंजीवाद के विचार की विफलता है, जो मानता है कि अमीरी बढ़ाने से गरीबी घटती है? पूंजीवाद का ‘ट्रिकल डाउन’ मॉडल मानता है कि ऊपर पैसा बढ़ेगा, तो वह रिसकर नीचे आएगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसलिए गरीब आखिर क्यों गरीब है, इस पर फिर से विचार करने की जरूरत है। हमारे पास धर्म से एक विचार आया था, जो बताता था कि गरीबी पिछले जन्म के पाप कर्मों का फल है। फिर मार्क्स और दूसरे विद्वानों ने हमें बताया कि गरीबी का संबंध अमीरों से है, जो शोषण करने के लिए गरीबों को गरीब बनाए रखना चाहते हैं। ये दोनों विचार ठीक एक-दूसरे से उल्टे हैं, मगर दोनों ही खुद गरीब को उसकी गरीबी के लिए जिम्मेदार नहीं मानते।


नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने गरीबी की वजह ढूंढने के लिए कुछ प्रयोग किए। उन्होंने पाया कि गरीबी एक चक्रव्यूह है। पैसे की कमी की वजह से गरीब पोषण-युक्त आहार नहीं ले पाते, नतीजतन वे शारीरिक रूप से उतने मजबूत नहीं होते कि ज्यादा पैसा कमा सकें। फिर इसी वजह से उन्हें कम पैसा मिलता है और गरीबी का चक्र चलता जाता है! यही बात खेती में भी लागू होती है। खाद के लिए पैसा चाहिए। पैसा नहीं होने पर खाद के बगैर फसल नहीं होती। जब फसल नहीं होती, तो फिर अगली फसल के लिए

पैसे नहीं होते और इसी तरह गरीबी का चक्र चलता जाता है। बनर्जी ने इसे ‘पावर्टी  ट्रैप’ नाम दिया। इसे तोड़ने के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया।


उन्होंने गरीबों को कुछ अतिरिक्त पैसा दिया, ताकि वे प्रोटीन-युक्त आहार खरीद सकें और उनकी कुपोषण की समस्या दूर हो सके। मगर ज्यादातर गरीबों ने पोषण-युक्त आहार खरीदने के बजाय उसका इस्तेमाल चाट-पकौड़ी खाने में कर दिया। ऐसे ही जब खाद या किसी दूसरे व्यापार के लिए गरीब किसानों को रकम दी गई, तो उस पैसे का इस्तेमाल उन्होंने टीवी या मोबाइल खरीदने में किया। अभिजीत बनर्जी ने पाया कि लंबे समय तक गरीबी में रहने की वजह से वे मान लेते हैं कि उनका जीवन ऐसे ही चलेगा और वह इसी क्षण अपने जीवन को मनोरंजक बना लेना चाहते हैं। पता नहीं उन्हें दूसरा मौका मिले या न मिले। इस तरह वे ‘पॉवर्टी ट्रैप’ से निकलने के कई अवसर गंवा देते हैं।


अभिजीत बनर्जी के निष्कर्षों को हम गरीबी को समझने के लिए तीसरे विचार के रूप में ले सकते हैं। ये निष्कर्ष इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि गरीबी को हटाने के हमारे सारे प्रयास अब तक राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के ही रहे हैं। हमने समझ और संस्कार को महत्व नहीं दिया। अभिजीत बनर्जी की मानें, तो हमें गरीबी हटाने के लिए गरीबों को आत्म-नियंत्रण सिखाने की जरूरत है। तुरंत मजे के लालच पर किस तरह काबू पाएं, यह सिखाने की जरूरत है।


त्वरित के बजाय दूरगामी फायदे को प्राथमिकता देने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। पर अगर हम बनर्जी महोदय की बातें मान लेते हैं, तो हमें मानना होगा कि गरीबों का स्वभाव ही गरीबी के लिए जिम्मेदार है। यानी गरीबी एक चारित्रिक दुर्गुण है। यह एक नया विचार है, जिस पर सभी सहमत नहीं हो सकते! इसलिए हमें गरीबों के व्यवहार को वस्तुनिष्ठ मानकर समझने की जरूरत है।


हमें गरीबी हटाने में गरीबों की सहभागिता पर भी बात करने की जरूरत है। यदि हमारे राजनीतिक और आर्थिक उपाय काम नहीं कर रहे हैं, तो इस बहस में अब मनोविज्ञान और सांस्कृतिक पहलुओं को भी जोड़े जाने की आवश्यकता है।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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