सजा का सबक (जनसत्ता)

महाराष्ट्र में एक लड़की का पीछा करके परेशान करने वाले युवक को ठाणे की विशेष अदालत ने जो सजा सुनाई है, उसे एक सबक के तौर पर देखा जा सकता है। विडंबना यह है कि समाज में रूढ़ ग्रंथियों और कुंठाओं से संचालित मानसिकता से ग्रस्त पुरुष इस तरह की हरकतों से तब तक बाज नहीं आते, जब तक वे किसी सख्त सजा के घेरे में नहीं आते। जबकि यह सामान्य समझ का मामला है कि किसी लड़की का पीछा करना न केवल असभ्य बर्ताव की श्रेणी में आता है, बल्कि यह कानूनन अपराध भी है। गौरतलब है कि करीब चार साल पहले आरोपी युवक पीड़ित नाबालिग लड़की का लगातार पीछा करता था। बीते हफ्ते शनिवार को ठाणे की विशेष अदालत ने इस मामले में भारतीय दंड संहिता और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण के लिए पॉक्सो कानून के तहत युवक को दोषी पाया और बाईस महीने जेल की सख्त सजा सुनाई। अदालत के इस फैसले को दोषी युवक के लिए एक बेहतर सबक कहा जा सकता है। विडंबना यह है कि हमारा समाज महिलाओं का पीछा करने जैसी हरकतों को कोई बड़ा अपराध नहीं मानता है। ऐसे तमाम मामले सामने आते रहते हैं, जिसमें कोई युवक किसी लड़की का पीछा करता है और लड़की की ओर से शिकायत करने पर लोग इसे कोई हल्की-फुल्की गलत बात मान कर अनदेखी करने की सलाह देते हैं। दूसरी ओर, लड़के को समझा-बुझा कर ऐसी गतिविधियों से दूर रहने को कह कर मामले को खत्म मान लिया जाता है। जबकि सच यह है कि ऐसी छोटी लगने वाली हरकतें ही महिलाओं के खिलाफ बड़े अपराधों की भूमिका बनती हैं। समय पर महिलाओं की शिकायत और उसके सामाजिक संदर्भों पर गौर नहीं करने, फिर अनदेखी करने का नतीजा कई बार घातक होता है। समाज के नरम रवैये को ऐसी आदतों का शिकार युवक अपने लिए रियायत मान कर इससे भी गंभीर हरकत करने की ओर बढ़ जा सकता है। बीते हफ्ते ही शुक्रवार को कालकाजी इलाके में स्कूल से लौट रही एक छात्रा से छेड़छाड़ और उस पर फब्तियां कसने का विरोध करने पर उसके सत्रह साल के भाई की तीन युवकों ने बुरी तरह पिटाई की और चाकू मार कर गंभीर रूप से घायल कर दिया। ये इस तरह के महज इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि गली-मोहल्ले में किसी लड़की का कुछ आवारा किस्म के युवकों ने पीछा किया, उससे छेड़छाड़ की, फब्तियां कस कर परेशान किया। अगर लड़की या उसके परिवार के सदस्यों ने उनका विरोध किया तो अपराधी प्रवृत्ति के युवक अपनी हरकतों से बाज आने के बजाय उल्टे हिंसक या जानलेवा हमला कर बैठते हैं। सवाल है कि उनके भीतर यह दुस्साहस कहां से आता है! दरअसल, ऐसे असामाजिक तत्त्वों की शुरुआती हरकतों की अनदेखी, उसकी पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करना एक तरह से उन्हें बढ़ावा देना हो जाता है। इसके बाद वे पहले से ज्यादा आक्रामक रवैया अख्तियार कर लेते हैं और कई बार अपनी मनमानी का विरोध करने या असहमति जताने भर के बाद लड़की पर हमला या उसकी हत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं। ऐसे में कानूनी सख्ती सबसे जरूरी उपाय है, लेकिन समाज को भी यह सोचने की जरूरत है कि घर से लेकर बाहर अलग-अलग स्तरों पर कैसे सामाजिक व्यवहार और सोच पलते-बढ़ते हैं, जिसमें कोई युवक कुंठा और हिंसा की मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है। पैदा होने के बाद पालन-पोषण के क्रम में पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी मूल्यों से ग्रस्त सामाजिक प्रशिक्षण जहां एक लड़के के भीतर इंसानी संवेदनाएं विकसित नहीं होने देता, वहीं इसका खमियाजा समाज में लड़कियों या महिलाओं को उठाना पड़ता है।

सौजन्य - जनसत्ता।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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