ऐसे में आशंका यह थी कि कहीं कोरोना दोबारा बेकाबू न हो जाए और पुरस्कार टलते ही चले जाएं। ऐसे में मई का इंतजार किए बगैर इसी सोमवार को बिना किसी धूमधाम के पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई। जो फैसला फिल्म प्रशंसकों के एक बड़े हिस्से को भावुकता की लहर से भिगो गया, वह था 2019 में रिलीज हुई फिल्म 'छिछोरे' को बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिलना।
लंबे इंतजार के बाद बीते सोमवार को 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई तो माहौल में खुशी के साथ-साथ थोड़ी राहत और भावुकता भी पगी हुई थी। विजेताओं और उनके फैंस के बीच खुशी और चूक गए कलाकारों और उनके प्रशंसकों के बीच हल्की सी मायूसी ऐसे मौके पर हर बार देखने को मिलती है। इस बार खास बात यह रही कि इस पुरस्कार समारोह के आगे और पीछे दोनों तरफ कोरोना वायरस के खौफ का साया पसरा नजर आया। इन पुरस्कारों की घोषणा 3 मई 2020 को होनी थी लेकिन कोरोना के कहर को देखते हुए खामोशी से इसे एक साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया। तय हुआ कि 2021 में मई के पहले सप्ताह में दोनों वर्षों के पुरस्कारों की घोषणा एक साथ कर दी जाएगी। मगर कोरोना के नए मामले काफी नीचे चले जाने के बाद दोबारा तेजी से बढ़ने लगे हैं। इसकी दूसरी लहर आधिकारिक तौर पर घोषित हो चुकी है।
ऐसे में आशंका यह थी कि कहीं कोरोना दोबारा बेकाबू न हो जाए और पुरस्कार टलते ही चले जाएं। ऐसे में मई का इंतजार किए बगैर इसी सोमवार को बिना किसी धूमधाम के पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई। जो फैसला फिल्म प्रशंसकों के एक बड़े हिस्से को भावुकता की लहर से भिगो गया, वह था 2019 में रिलीज हुई फिल्म 'छिछोरे' को बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिलना। यह सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म थी, जिनकी आत्महत्या की खबर ने पिछले साल न केवल सबको चौंका दिया था बल्कि परदे पर दिखने वाली सुनहरी जिंदगी के पीछे छिपी कलाकार की वास्तविक जिंदगी के दुखों, संघर्षों और तनावों को भी लाइमलाइट में ला दिया था। बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड मनोज वाजपेयी (भोसले) और धनुष (असुरन) को मिलना एक बार फिर इन दोनों कलाकारों की अभिनय क्षमता पर मोहर लगाने जैसा रहा। मणिकर्णिका और पंगा के लिए बेस्ट ऐक्ट्रेस का पुरस्कार जीतकर कंगना रनौत ने एक बार फिर अपनी क्षमता सिद्ध की है। फैशन, क्वीन और तनु वेड्स मनु रिटर्न्स के बाद यह उनका चौथा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार है।
बहरहाल, ये पुरस्कार ऐसे समय घोषित हुए हैं जब सिनेमा की हमारी दुनिया आमूल-चूल बदलाव के दौर से गुजर रही है। पिछले साल के ज्यादातर हिस्से में सिनेमा हॉल बंद रहे और लोग मनोरंजन के लिए ओटीटी प्लैटफॉर्म्स की ओर मुड़े। अब जब सिनेमा हॉल खुल गए हैं तब भी वे दर्शकों की पहले जैसी भीड़ नहीं खींच पा रहे। ओटीटी इस बीच एक सशक्त और टिकाऊ विकल्प के रूप में उभर चुका है और यह सिनेमा के विषय तथा कथ्य को भी प्रभावित कर रहा है। इसके संपूर्ण प्रभावों के आकलन में वक्त लगेगा, लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ज्यादा समय तक पूरी तरह ओटीटी के लिए बनने वाली फिल्मों और सीरीज से आंखें मूंदे रहें, यह ठीक नहीं होगा। न एक कला के रूप में सिनेमा के विकास की दृष्टि से, न ही राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की सार्थकता के लिहाज से।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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