लापरवाही की हद (जनसत्ता)

देश में एक बार फिर कोरोना की नई लहर ने कैसी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, यह छिपा नहीं है। इसे लेकर सरकार की ओर से सावधानी बरतने और संक्रमण पर काबू पाने के लिए तमाम चौकसी बरती जा रही हैं। आम लोगों के लिए भी कई तरह की हिदायतें जारी की गई हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से देश के अलग-अलग हिस्सों से आम लोगों की ओर से बचाव के इंतजामों को लेकर व्यापक कोताही के मामले सामने आ रहे हैं। जबकि हालत यह है कि कुछ राज्यों में संक्रमण के बढ़ते खतरे को देखते हुए कहीं रात का कर्फ्यू तो कहीं चरणबद्ध रूप से पूर्णबंदी को लागू करने की नौबत आ गई है। खासतौर पर महाराष्ट्र में कोरोना के तेजी से बढ़ते मामलों ने चिंता की नई लहर पैदा कर दी है और उससे निपटने के लिए बचाव के इंतजामों के संदर्भ में बहुस्तरीय सख्ती की घोषणा की गई है। मगर विडंबना यह है कि इसके बावजूद बहुत सारे लोगों को इन नियम-कायदों पर अमल करना जरूरी नहीं लग रहा है और वे परंपरा या आस्था के नाम पर होने वाले आयोजनों में महामारी से बचाव के सभी उपायों को धता बता रहे हैं।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र के नांदेड़ में हुजूर साहिब गुरुद्वारा में सिखों की ओर से होला-मोहल्ला का जुलूस निकाला जाता है। लेकिन इस बार कोरोना महामारी के मद्देनजर जुलूस को पहले की तरह निकालने की इजाजत नहीं मिली थी। हालांकि पुलिस प्रशासन और गुरुद्वारा समिति के बीच इस पर सहमति बनी थी कि वे यह कार्यक्रम परिसर के भीतर ही करेंगे। लेकिन जब ऐसे आयोजनों में शामिल होने के लिए भारी तादाद में लोग इकट्ठा हो जाते हैं और उन्हें नई व्यवस्था के बारे में जानकारी नहीं होती है तो अचानक सबको समझाना मुश्किल हो जाता है। शायद यही वजह है कि वहां मौजूद कुछ समूहों के बीच खींचतान शुरू हो गई कि होला-मोहल्ला का जुलूस वैसे ही निकलेगा, जैसे आम दिनों में निर्धारित मार्ग से निकलता है।

यह जद्दोजहद अराजकता में तब्दील हो गई। फिर काफी लोग घेरा तोड़ कर बाहर निकल गए और रोके जाने पर उनमें से कइयों ने पुलिसकर्मियों पर हमला भी दिया। नतीजतन, चार पुलिसकर्मी घायल हो गए और इस घटना के बाद कई लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो गए। यानी एक धार्मिक उत्सव अराजकता और हिंसा का शिकार हो गया, जिसमें आस्था के लिए शायद कोई जगह नहीं बची। आखिर इससे किसका नुकसान हुआ?


सही है कि धर्म और आस्था एक संवेदनशील विषय है और इसके दायरे में होने वाली गतिविधियों और उत्सवधर्मिता के अपने नियम-कायदे होते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या कोई आस्था वैसी लापरवाही की छूट देती है, जिससे लोगों की सेहत और जीवन के सामने जोखिम पैदा हो या फिर लोग कानून-व्यवस्था को ताक पर रख कर अपनी मनमर्जी करने लगें? अगर सरकार या प्रशासन की ओर से उत्सवों के आयोजन के संदर्भ में कुछ सीमाएं लागू की गई हैं तो यह आम लोगों के ही हित में हैं।


अफसोस की बात है कि महाराष्ट्र सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में धर्म और परंपरा या फिर चुनावी रैलियों के नाम पर लोग संक्रमण से बचाव के तमाम नियमों को ताक पर रख कर व्यापक जमावड़े में शामिल हो रहे हैं। यह एक तरह से दोहरी लापरवाही है, जिसमें एक ओर अपनी ही सेहत और जान की सुरक्षा के लिए किए गए बचाव इंतजामों का खयाल रखना लोगों को जरूरी नहीं लग रहा है, वहीं वे इस मसले पर लागू कानूनों को भी मानने से इनकार कर रहे हैं। अगर इस तरह की लापरवाही की वजह से एक बार फिर महामारी बेलगाम हुई, तो इसका खमियाजा किसे भुगतना पड़ेगा?

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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