श्यामल मजूमदार
हमेशा की तरह गत 8 मार्च को भारत में भी एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। इस मौके पर हर कोई, हर किसी को यह सलाह देता नजर आया कि महिलाओं की स्थिति में सुधार कैसे लाया जाए। तमाम जगहों पर प्रकाशित ऐसे मशविरे एकदम वैसे ही थे जैसे पिछले वर्ष इस मौके पर जारी किए गए थे। परंतु ऐसे सर्वेक्षण एक उद्देश्य पूरा करते हैं: वे कम से कम हमें यह याद दिलाते हैं कि इतने वर्ष बाद भी हमारी चुनौतियां बरकरार हैं। विश्व आर्थिक मंच की सन 2020 की महिला-पुरुष (लैंगिक) अंतर संबंधी रिपोर्ट इनमें से कुछ चुनौतियों को रेखांकित करती है और उसके निष्कर्ष बहुत अधिक चिंतित करने वाले हैं।
रिपोर्ट में भारतीय समाज के बहुत बड़े हिस्से में महिलाओं की स्थिति को 'खतरनाक' करार दिया गया है। इनमें भी आर्थिक लैंगिक अंतर कहीं अधिक बड़ी चिंता का विषय है जहां भारत को 153 देशों में 149वें स्थान पर रखा गया है। श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी दुनिया में सबसे निचले स्तरों पर है और उनकी अर्जित आय पुरुषों की आय का 20 प्रतिशत है।
एक और चौंकाने वाला आंकड़़ा यह है कि भारत स्वास्थ्य और उत्तरजीविता उप सूचकांक में एकदम निचले पायदान पर है। भारत में जन्म के समय लिंगानुपात असामान्य रूप से खराब है और प्रति 100 बच्चों पर केवल 91 बच्चियां पैदा होती हैं। पाकिस्तान में यह अनुपात प्रत्येक 100 बच्चों पर 92 और चीन में केवल 90 है।
बांग्लादेश इस मामले में दक्षिण एशिया का बेहतरीन देश है। संपूर्ण सूचकांक में उसका स्थान 50वां है और वह भारत से करीब 60 स्थान ऊपर है। चीन भारत से महज छह स्थान ऊपर 106वें स्थान पर है। लैंगिक समानता के मामले में दोनों देशों में एक दूसरे से खराब प्रदर्शन करने की होड़ है। भारत इस बात से संतुष्ट हो सकता है कि वह राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में चीन (95वां स्थान) से बहुत बेहतर स्थिति में है। ऐसा लगता है कि चीन और भारत लैंगिक भेदभाव में एक जैसे हैं। दोनों देशों में कमोबेश यही प्रचलन है कि बेटे बुढ़ापे में अपने मां-बाप की देखभाल करेंगे जबकि बेटियां ब्याह करके अपने ससुराल चली जाएंगी। जब महिलाओं को समान अधिकार न मिलें और पितृसत्ता बहुत गहरे तक धंसी हो तो आश्चर्य नहीं कि इन दोनों देशों में मां-बाप लड़कियां नहीं चाहते।
समाज में अपेक्षाकृत वरीयता प्राप्त वर्ग की स्त्रियों में भी यह असमानता बरकरार है। कंपनी अधिनियम द्वारा सूचीबद्ध कंपनियों के लिए अपने निदेशक मंडल में कम से कम एक महिला को रखना अनिवार्य किए जाने के बाद भी देश में महज 8 फीसदी निदेशक महिला हैं। चीन में यह स्तर और कम है। इनकी जो तादाद दिखती भी है उसमें पारिवारिक रिश्तों की अहम भूमिका है।
किसी महिला को नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जाना अभी भी दुर्लभ है। अपेक्षाकृत निचले या मझोले स्तर पर महिलाओं की नियुक्ति को प्राय: समझदारी भरा कदम माना जाता है लेकिन वरिष्ठ पदों पर महिलाएं प्राय: देखने को नहीं मिलतीं। तमाम कंपनियों में इस मामले में अभी भी सोच एक जैसी ही है। हालांकि कुछ अन्य वजह भी हैं। कनिष्ठ से मध्यम स्तर के पदों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो भारत में इस श्रेणी में महिलाओं की तादाद सबसे तेजी से कम होती है। जबकि कुछ अन्य एशियाई देशों में यह गिरावट मध्यम से उच्च स्तर पर होने वाले स्थानांतरण में देखने को मिलती है। आंकड़े बताते हैं कि लगभग एक तिहाई महिला कर्मचारी तब तक दोबारा काम शुरू नहीं कर पातीं जब तक कि घर पर बच्चे की देखरेख करने के लिए कोई न हो।
ऐसा तब है जबकि इस बात के काफी प्रमाण हैं जो बताते हैं कि बोर्ड में अधिक महिलाओं का होना वित्तीय दृष्टि से भी बेहतर है। मैकिंजी की गत वर्ष आई रिपोर्ट में दिखाया गया कि जिन कंपनियों के बोर्ड में शीर्ष चौथाई लोगों में लैंगिक विविधता है, उनमें अपने अन्य समकक्षों को वित्तीय मामलों में पीछे छोडऩे की संभावना 28 फीसदी अधिक है। ऋण तक पहुंच, जमीन या वित्तीय उत्पादों की खरीद आदि के मामलों में महिलाओं की स्थिति अभी भी पुरुषों की तुलना में कमजोर है। जबकि यही वे क्षेत्र हैं जो महिलाओं को अपनी कंपनी शुरू करने या परिसंपत्ति प्रबंधन से आजीविका कमाने का अवसर देते हैं।
निश्चित तौर पर ऐसा भी नहीं है कि महिलाओं की बुरी स्थिति केवल भारत जैसे देश में ही है। प्रगति की मौजूदा दर का ध्यान रखें तो वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता हासिल करने में अभी 100 वर्ष का समय और लगेगा। वैश्विक श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 39 प्रतिशत है। परंतु मई 2020 में कुल गंवाए गए रोजगार में उनकी हिस्सेदारी 54 प्रतिशत रही।
डब्ल्यूआईओएन चैनल द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि कई देशों में महिलाओं की स्थिति तो बहुत ज्यादा खराब है। कुछ देशों में महिलाओं को बुनियादी यौन और प्रजनन संबंधी अधिकार भी नहीं हैं। प्रजनन लायक उम्र की करीब 9 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं जहां गर्भपात पर रोक है। ईरान में महिलाओं को विदेश यात्रा के पहले पति से अनुमति लेनी होती है।
महिलाओं पर हिंसा की वारदात लगातार सामने आती हैं। विश्व स्तर पर हर घंटे पुरुषों के हाथों छह महिलाएं मारी जाती हैं। हर रोज दुनिया भर में 137 महिलाएं अपने साथी या किसी परिजन के हाथों जान गंवाती हैं। नाइजीरिया में पुरुषों को अपनी पत्नी को पीटने का कानूनी अधिकार है। कानून कहता है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को सुधारने के लिए कोई काम करता है तो वह अपराध नहीं माना जाएगा।
पुरुषों की तुलना में महिलाएं 2.6 गुना घरेलू काम बिना वेतन के करती हैं। रोजगार में भी उनके पदोन्नति पाने की संभावना 18 फीसदी कम होती है। केवल छह ऐसे देश हैं जो महिलाओं और पुरुषों को समान कानूनी अधिकार देते हैं लेकिन 36 देशों में वैवाहिक बलात्कार को वैधता प्राप्त है। भारत भी इनमें से एक है।
आशा की जानी चाहिए कि अगले वर्ष 8 मार्च को ये आंकड़े कुछ बेहतर होंगे।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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