रथिन रॉय
पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार का प्रदर्शन मिला-जुला रहा है। गृह मंत्रालय ने अपने स्तर पर शुरू किए गए कार्यों को पूरी क्षमता से अंजाम दिया है। उसने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और जम्मू, कश्मीर एवं लद्दाख क्षेत्रों के प्रशासनिक पुनर्गठन का काम पूरा किया है। गृह मंत्रालय ने देश में सख्त लॉकडाउन को भी लागू कराया है। इसने नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू करने से जुड़े व्यवधानों को भी दूर किया है। इसके अलावा इसने अपनी मनमर्जी से देश की अंदरूनी सीमाओं को सील करने के लिए पुलिसबलों को भी तैनात किया है।
स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी पूरी क्षमता से टीकाकरण अभियान चलाने में लगा हुआ है। राष्ट्रीय सड़क नेटवर्क के विस्तार एवं नवीकरण संबंधी कार्यों को सड़क मंत्री बखूबी क्रियान्वित कराने में लगे हुए हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वित्त मंत्रालय एवं अन्य आर्थिक मंत्रालयों के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है। भारत सरकार एक संरचनात्मक राजकोषीय संकट के दौर से गुजर रही है जिसे महामारी ने भले ही जन्म न दिया हो लेकिन उसे गंभीर जरूर बनाया है। वित्त मंत्रालय अपेक्षा के अनुरूप कर संग्रह कर पाने में लगातार नाकाम रहा है, प्रवर्तन निदेशालय के बहुचर्चित हाई-प्रोफाइल छापों के बावजूद। व्यापक कर सुधार के तौर पर पेश किए गए जीएसटी का क्रियान्वयन भी बहुत खराब रहा। यह अपनी आकांक्षा के अनुरूप सरकारी परिसंपत्तियों का विनिवेश कर पाने में भी नाकाम रहा है। बैंकिंग प्रणाली संरचनात्मक मुश्किलों में उलझी हुई है। सड़कों का निर्माण हो रहा है लेकिन भारत अपने एशियाई प्रतिस्पद्र्धियों की तुलना में अब भी लॉजिस्टिक के लिहाज से एक दु:स्वप्न ही बना हुआ है। व्यापार नीति संरक्षणवाद एवं निर्यात-उन्मुख प्रोत्साहनों के बीच उलझी हुई है। युवाओं को बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए जमानत दिए बगैर जेल में डाल दिया जाता है लेकिन उसी युवा को रोजगार एवं शिक्षा के अवसर प्रदान करने के मामले में यह काबिलियत नजर नहीं आती है। हम टीकाकरण कार्यक्रम अच्छी तरह चला रहे हैं लेकिन हमारी स्वास्थ्य प्रणाली बेहद खराब है। सरकार लोगों को पहले से अधिक एवं बेहतर सेवाएं देने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट गई है और उसका जोर बैंक खातों में प्रत्यक्ष नकद अंतरण पर कहीं अधिक है।
मेरी राय में इस विरोधाभास के दो रोचक कारण हैं। पहली वजह राजनीतिक पूंजी का सापेक्षिक निवेश है। एक आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माण और एक अंतरिक्ष एवं नाभिकीय शक्ति के तौर पर मिली सफलता के पीछे काफी हद तक राजनीतिक पूंजी का निवेश भी शामिल रहा है। आज सरकार के प्रयासों को रेखांकित करने वाली आर्थिक विचारधारा अपरिपक्व है। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 370 पर नजर आई वैचारिक स्पष्टता के उलट निजीकरण की कोशिशों के पीछे राजनीतिक पूंजी का निवेश नहीं दिखा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सरकार कर संग्रह में अपनी नाकामी को छिपाने के लिए ही अपनी परिसंपत्तियों को बेचने की कोशिश करती हुई दिख रही है। इस तरह निजीकरण प्रयासों को पूरा करना और उन्हें अंजाम तक पहुंचाने का रिकॉर्ड बहुत खराब है। भारत सरकार के इस प्रदर्शन की तुलना ब्रिटेन एवं अन्य देशों में किए गए निजीकरण से करें तो वहां पर यह मुहिम सिर्फ राजस्व जुटाने के लिए नहीं चलाई गई थी, उसके पीछे वैचारिक आधार थे।
दूसरा कारण सरकारी नीतियों को जमीन पर लागू करने वाली लोक सेवा की प्रकृति से जुड़ा है। औपनिवेशिक जड़ों वाली सिविल सेवाएं सरकारी नीतियों को लागू करने के इरादे से बनी ही हैं, सार्वजनिक सेवाएं देने के लिए नहीं। जब सेवा देना और आर्थिक गतिविधि का क्रियान्वयन किसी भी सरकार का प्रमुख काम बन जाता है तो यह जरूरी हो जाता है कि वह खुद को एक प्रशासनिक संस्थान की जगह एक कार्यकारी संस्थान के रूप में तब्दील कर ले। इसके पीछे कारण यह है कि सेवा देना और आर्थिक विकास जटिल काम हैं। लिहाजा एक कार्यकारी सिविल सेवा को जटिल समस्याओं से बचने के बजाय जटिलता से जूझने और जटिल समस्याओं को सरलीकृत करने की जरूरत होती है।
सरकार को भागीदारी की जरूरत होती है। सरकार को समान रूप से मनचाहे नतीजे पाने के लिए दूसरे हितधारकों के साथ मिलकर काम करना होगा। एक कार्यकारी सिविल सेवा प्रबंधन, सहयोगी रवैये और तकनीकी विशेषज्ञता के इस्तेमाल में पारंगत होती है। वहीं प्रशासकीय सिविल सेवा अपना काम पूरा करने के लिए बाध्यकारी ताकत का इस्तेमाल करती है। हितधारकों के साथ संबंध सहयोगपूर्ण न होकर पदानुक्रम पर आधारित होते हैं। उसमें कोई भी साझेदार नहीं होता है, केवल निवेदक, विरोधी एवं मातहत होते हैं।
प्रशासकीय सिविल सेवा कार्यपालक क्षमता एवं भागीदारी को अपनी शक्ति एवं प्रभाव के लिए खतरे के तौर पर देखती है। पिछले दिनों ब्रिटेन के वित्त मंत्री ने एक परिणामोन्मुख बजट पेश किया है जिसमें रिकवरी-उन्मुख मध्यम अवधि वाले वृहद-आर्थिक प्रारूप की ओर ले जाने वाली कर एवं राजस्व नीतियों पर जोर है। यह इसलिए मुमकिन हो पाया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ने बजट दायित्व कार्यालय नाम की एक संस्था बनाई थी ताकि उसकी कार्यकारी राजकोषीय क्षमताओं को सुधारा जा सके। भारत के वित्त मंत्रालय ने उस तरह की संस्था (राष्ट्रीय राजकोषीय परिषद) नहीं बनाने दी क्योंकि वह इसे खुद की प्रशासनिक शक्ति में कमी लाने वाले के तौर पर देखता है। भारत में एक क्लासिक प्रशासकीय सिविल सेवा है। इसके अफसर एक सामान्यज्ञ प्रतियोगी परीक्षा के जरिये चुने जाते हैं और फिर उन्हें रैंक के आधार पर अलग-अलग काम सौंपे जाते हैं। विशेषज्ञ एवं तकनीकी सेवाओं के अधीनस्थ पेशेवर प्रशासकीय सूझबूझ में महारत रखते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर किए गए प्रयासों को छोड़ दें तो इस व्यवस्था में कार्यपालक क्षमता के लिए गुंजाइश ही बहुत कम है।
प्रशासकीय सिविल सेवा बाध्यकारी शक्ति के कुशल उपयोग की जरूरत वाले कार्यों को पूरा कर सकते हैं। यह चुनाव, टीकाकरण एवं सड़क निर्माण जैसे समयबद्ध प्रयासों को भी बेहतरीन ढंग से अंजाम देने में सक्षम है।
लेकिन असरदार स्वास्थ्य एवं शिक्षा प्रणाली, राजस्व सुधार, विनिवेश, बैंकिंग प्रणाली के प्रबंधन, लॉजिस्टिक सुविधाओं में सुधार जैसे कार्यों को पूरा कर पाना खासा जटिल काम है। इनके लिए सिविल सेवा को जटिलता को गले लगाने एवं उसके साथ सतत संयोजन की जरूरत है।
प्रशासक एक पैदा होते हुए हालात में प्रतिक्रिया देते हैं जबकि कार्यकारी वह स्थिति पैदा होने से जुड़ी घटनाओं को नियंत्रित करते हैं। इस कारण से सरकार सड़कें बनाने में तो सक्षम हो जाती है लेकिन लॉजिस्टिक सुविधा में सुधार नहीं हो पाता है, वह लोगों को टीके तो लगा देती है लेकिन एक कारगर स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं दे पाती है। यही वजह है कि गृह मंत्रालय काम पूरा करने में बेहतर है। प्रशासकीय दृष्टिकोण होने से गृह मंत्रालय अपना काम अंजाम देने में सफल रहता है क्योंकि इसमें बाध्यकारी शक्ति के इस्तेमाल और बड़े पैमाने पर तैनाती जैसे कदम शामिल होते हैं। इसमें किसी भागीदारी की जरूरत नहीं होती है। लेकिन वही रवैया वित्त मंत्रालय के लिए काम नहीं करता है क्योंकि इसके मामलों में जटिलता को स्वीकार करने, उनका सामना करने और दूसरे हितधारकों के साथ बराबर की साझेदारी में निपटारे की जरूरत होती है।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में विचार व्यक्तिगत हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment