बहुचर्चित और विवादित बाटला हाउस मुठभेड़ का फैसला आ गया है। दिल्ली के साकेत न्यायालय ने इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी आरिज खान को दोषी करार देते हुए साफ लिखा है कि अभियोजन द्वारा पेश चश्मदीद गवाह‚ दस्तावेज एवं वैज्ञानिक सबूत आरिज पर लगे आरोपों को साबित करते हैं। इसमें संदेह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। न्यायालय ने साफ लिखा है कि आरिज व उसके साथियों ने इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या की थी और पुलिसकÌमयों पर गोली चलाई थी। न्यायालय ने यह भी कहा है कि आरिज खान अपने चार साथियों मोहम्मद आतिफ अमीन‚ मोहम्मद साजिद‚ मोहम्मद सैफ एवं शहजाद अहमद के साथ बाटला हाउस में मौजूद था।
न्यायालय का फैसला उन लोगों को करारा प्रत्युत्तर है जो शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के बलिदान को कमतर करते हुए पूरे मामले को पुलिस द्वारा गढ़ा गया एवं मुठभेड़ को फर्जी करार देने का अभियान लगातार चलाए हुए थे। करीब साढ़े १२ वषाç बाद आया यह फैसला हम सबको उद्वेलित करने के लिए पर्याप्त है। वैसे २५ जुलाई २०१३ को न्यायालय ने शहजाद को आजीवन कारावास की सजा देकर बाटला हाउस मुठभेड़ को सही करार दिया था। बावजूद इसके शोर कम नहीं हुआ। याद करिए १३ सितम्बर २००८ को जब दिल्ली में करोल बाग‚ कनॉट प्लेस और ग्रेटर कैलाश में एक के बाद एक श्रृंखलाबद्ध धमाके हुए तो कैसी स्थिति बनी थीॽ उन धमाकों में ३० लोग मारे गए और १०० से अधिक घायल हुए थे। यह तो संयोग था कि पुलिस ने समय रहते कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा‚ इंडिया गेट एवं संसद मार्ग से चार बमों को धमाके से पहले बरामद कर नि्क्रिरय कर दिया था अन्यथा आतंकवादियों ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
पुलिस के आरोप पत्र और फैसले को देखें तो इसमें पूरी घटना का सिलसिलेवार वर्णन है। पुलिस की जांच से पता लग गया था कि इंडियन मुजाहिदीन या आईएम के आतंकवादियों ने इन घटनाओं को अंजाम दिया है और वे सभी बाटला हाउस के एल १८ स्थित फ्लैट नंबर १०८ में छिपे हैं। इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की टीम १९ सितम्बर २००८ की सुबह सादे कपड़ों में सेल्समैन बनकर आतंकियों को पकड़ने के लिए पहुंची। इन्होंने ज्यों ही दरवाजा खटखटाया अंदर से गोली चलनी शुरू हो गई। गोलीबारी में दो आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद मारे गए‚ शहजाद अहमद और आरिज खान भाग निकलने में सफल हो गए‚ जबकि जीशान पकड़ में आ गया। मोहन चंद शर्मा वहीं शहीद हो गए थे। जैसे ही पुलिस ने लोगों की धरपकड़ शुरू की व्यापक विरोध शुरू हो गया‚ जिसमें राजनीतिक दल‚ एनजीओ‚ एक्टिविस्ट‚ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र संगठन–शिक्षक संगठन शामिल थे। जो मोहन चंद शर्मा बहादुरी से लड़ते हुए हमारी आपकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बलिदान हो गए उनको ही दोषी और अपराधी साबित किया जाने लगा। यह भी आरोप लगा कि पुलिस वालों ने ही उनको गोली मार दी। हालांकि ये लोग भी नहीं बता सके कि आखिर आरिज खान है कहांॽ
दिल्ली विस्फोट एक व्यापक साजिश का हिस्सा था। सोचिए‚ ये कितने शातिर थे और हिंसा और खून से राजधानी को दहलाने का उन्माद कितना गहरा था। यह भी ध्यान रखने की बात है कि आरिज खान एवं कुरैशी को उनके किसी रिश्तेदार ने शरण नहीं दी। दोनों भागते फिर रहे थे। वे नेपाल गए जहां उन्होंने जाली दस्तावेजों से नेपाल की नागरिकता प्राप्त की तथा वहां के एक युवक निजाम खान के सहयोग से किराए पर घर ले लिया। उन्होंने वहां मतदाता पहचान पत्र एवं पासपोर्ट भी बनवा लिये तथा नेपाल की एक युवती से शादी भी कर ली। इस तरह के आतंकवादियों के पक्ष में अगर देश के बड़े लोग खड़े हो जाएं तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता। आज इनके पक्ष में आवाज उठाने वालों से देश चाहेगा कि वे सामने आएं और बताएं कि न्यायालय के फैसले के बाद उनका क्या कहना है। दिल्ली पुलिस की जगह न्यायिक जांच की मांग की जा रही थी। मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च अदालत तक ले जाया गया। इनकी अपील पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दो महीने के भीतर मामले की जांच पूरी करने को कहा था। आयोग ने दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट देते हुए मुठभेड़ को वास्तविक माना। इसके बाद न्यायिक जांच की मांग खारिज कर दी गई।
इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। वहां मामला खारिज हो गया। कोई यह नहीं कह सकता कि इस मामले की कानूनी लड़ाई में आरोपितों की ओर से कहीं भी कोई कमी रही। सच तो यह है कि न्यायालय में जितना संभव था वकीलों ने दोषियों को बचाने के लिए पूरी ताकत लगा दी। आरिज की तरफ से पेश अधिवक्ता ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि इंस्पेक्टर शर्मा को कौन सी गोली लगी हैॽ घटनास्थल से आरिज की तस्वीरें‚ उसके शैक्षणिक प्रमाण पत्र आदि की बरामदगी को भी चुनौती दी गई‚ लेकिन यह नहीं बता सके कि आखिर पुलिस को ये सब मिला कहां सेॽ इंस्पेक्टर शर्मा के गोली लगने के स्थान‚ उनके सुराख पर भी प्रश्न उठाए गए। अंततः साबित हुआ कि उनको लगी गोली से बने घाव उनके कपड़े पर हुए सुराख से मेल खाते हैं तथा गिरे आंसू उनके घाव को दर्शाते हैं।
वैसे फैसला आने के पहले ही दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी करनैल सिंह ने‚ जो उस समय विशेष शाखा के प्रमुख थे ‘बाटला हाउस एनकाउंटर दैट शूक द नेशन' नामक पुस्तक में इस बात का सिलसिलेवार और विस्तार से जिक्र किया कि किस तरह से दिल्ली धमाकों के सिलसिले में विशेष शाखा को बाटला हाउस में आतंकवादियों के छिपे होने का पता चला था‚ कैसे कार्रवाई हुई और कैसे एक सही मुठभेड़ को फर्जी करार देने की कोशिश हो रही है। वास्तव में दिल्ली एवं देश के आम लोगों को पुलिस की जांच पर कोई संदेह नहीं था‚ लेकिन उस वर्ग ने इसे संदेहास्पद बना दिया‚ जो प्रायः आतंकवादी घटनाओं को संदेह के घेरे में लाता है‚ पकड़े गए संदिग्ध आतंकवादियों को मासूम बताने के लिए बनावटी तथ्यों और तर्कों का जाल बुनता है तथा पुलिस एवं सरकारों को कठघरे में खड़ा करता है। अभी मामला ऊपर के न्यायालयों में जाएगा। वर्तमान फैसले के आलोक में ऐसे लोगों से फिर निवेदन किया जा सकता है कि सुरक्षा के मामले में राजनीति और तथाकथित विचारधारा के नाम पर इस तरह का वितंडा आत्मघाती हो सकता है।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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