राजग सरकार की कोशिश है कि देश में आईएएस और आईपीएस जैसी सेवाओं की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा यानी एआईजेएस आरंभ की जाये। सरकार का विश्वास है यह प्रयास न्याय प्रदान करने की समग्र प्रणाली हेतु महत्वपूर्ण साबित होगा। हाल ही में राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि यह सेवा अखिल भारतीय योग्यता चयन प्रणाली के माध्यम से नयी योग्य विधिक प्रतिभाओं के चयन में सक्षम होगी। साथ ही इससे सामाजिक समावेश के मुद्दे का हल भी निकलेगा। मंशा यही है कि इस प्रक्रिया के जरिये पिछड़े और वंचित समाज के लोगों की न्यायिक व्यवस्था में भागीदारी बढ़ सकेगी। दरअसल, विगत में भी ऐसी कोशिश हुई थी लेकिन विरोध व असहमति के चलते इसे मूर्त रूप नहीं दिया जा सका। सरकार की कोशिश हो कि सभी हितधारकों को साथ लेकर आगे बढ़ा जाये। वास्तव में मोदी सरकार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के विचार को गंभीरता से ले रही है, जिसका उल्लेख पिछले दिनों राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने किया। आम धारणा रही है कि इस विचार को क्रियान्वित करने के लिये संविधान संशोधन की अावश्यकता होगी। इसके विपरीत, संविधान के अनुच्छेद 312(1) में किसी अखिल भारतीय सेवा को स्थापित करने का प्रावधान है, जिसके जरिये एआईजेएस के विचार को अंतिम रूप दिया जा सकता है, जिसके अंतर्गत राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव का पारित होना आवश्यक है, जिसके बाद संसद को एआईजेएस को मूर्तरूप देने वाला कानून बनाना होगा। हालांकि, विगत में सरकार के ऐसे प्रयासों का कई उच्च न्यायालयों व राज्यों ने विरोध भी किया था। उनकी सोच थी कि यह विचार संघवाद के विरुद्ध जायेगा। यही वजह है कि कानून मंत्री ने उच्च न्यायालयों समेत सभी हितधारकों से एआईजेएस के मुद्दे पर परंपरागत विरोध का परित्याग करने का आग्रह किया ताकि भविष्य में इस विचार को अमलीजामा पहनाने में मदद मिल सके।
दरअसल, विगत में जजों के चयन के लिये अखिल भारतीय सिस्टम बनाने हेतु व्यापक प्रस्ताव तैयार किया गया था। नवंबर, 2012 में सचिवों की एक समिति ने प्रस्ताव को मंजूरी भी दी थी। इतना ही नहीं इस प्रस्ताव को अप्रैल, 2013 में संपन्न हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों तथा मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन के प्रस्तावित एजेंडे में शामिल किया गया था। तब सहमति बनी कि व्यापक मंथन के बाद इस प्रस्ताव पर राज्य सरकारों व हाईकोर्टों के विचार मांगे जायें। लेकिन इस विचार पर सहमति नहीं बन सकी। जहां कुछ राज्य सरकारें व उच्च न्यायालय प्रस्ताव के पक्ष में थे तो कुछ विरोध में। कुछ पक्ष केंद्र के प्रस्ताव में बदलाव लाने के पक्षधर थे। फिर वर्ष 2015 में राज्य सरकारों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के सम्मेलन के विषयों में इसे शामिल किया गया। दरअसल, असहमति की एक वजह यह भी रही कि कुछ पक्षों द्वारा जिला न्यायाधीशों के खाली पदों में नियुक्ति हेतु वर्तमान चयन प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक बनाने की बात कही गई, जिसका निर्णय का अधिकार उच्च न्यायालयों को दिया गया। इसके बावजूद केंद्र सरकार मुद्दे पर सहमति बनाने हेतु प्रयासरत रही है। दरअसल, वर्ष 1987 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट कहती है कि देश में प्रति दस लाख आबादी पर पचास जजों की नियुक्ति होनी चाहिए, जो उस समय दस थी और वर्तमान में बीस है। लेकिन अन्य देशों के मुकाबले यह बहुत कम है। जहां अमेरिका में प्रति दस लाख आबादी पर 107 तो ब्रिटेन में 51 न्यायाधीश नियुक्त हैं। इस साल जनवरी में अधीनस्थ न्यायपालिका में स्वीकृत 24,247 पदों के मुकाबले जजों की संख्या 19138 थी। यानी पांच हजार जजों के पद रिक्त थे। वहीं राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार भारत के विभिन्न जिला व तालुका न्यायालयों में 3.81 करोड़ वाद लंबित थे, जिसमें एक लाख से अधिक मामले तीस साल से लंबित हैं। बीते माह कुल 14.8 लाख मामले दर्ज किये गये। वर्ष 2012 में आई एक रिपोर्ट में कहा गया कि अगले तीस सालों में वादों की संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जायेगी, जिसके लिये 75 हजार जजों की जरूरत होगी जो इस बाबत निर्णायक फैसला लेने की गंभीरता को दर्शाता है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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