नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर जारी किसान आंदोलन अब गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। सौ दिन से ज्यादा हो चुके हैं और दिल्ली की सीमाओं पर बड़ी संख्या में किसान धरने पर बैठे हैं। इसके अलावा आंदोलन को देशव्यापी बनाने के मकसद से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में लगातार महापंचायतें हो रही हैं। किसानों के इस रोष का संकेत साफ है कि किसान अब खामोश नहीं बैठने वाले। वे देशभर में ऐसी महापंचायतें करेंगे। लेकिन इन सारे घटनाक्रमों में सबसे ज्यादा हतप्रभ करने वाली बात यह है कि सरकार ने अब किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया है।
अब वार्ता के संकेत तो दूर, सरकार संसद में भी इस मुद्दे पर चर्चा से बचती दिख रही है। बुधवार को राज्यसभा में कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी सदस्यों ने नियम 267 के तहत कृषि कानूनों के मसले पर चर्चा के लिए नोटिस दिया, लेकिन उन्हें चर्चा की अनुमति नहीं दी गई। लोकसभा में भी विपक्षी सदस्यों की बात नहीं सुनी गई। इस पर विपक्षी सदस्यों का नाराज होना स्वाभाविक था। सदनों में हंगामा होने लगा और फिर कार्यवाही स्थगित कर दी गई। इस वक्त किसान आंदोलन एक संवेदनशील मुद्दा है और अगर इस पर विपक्ष चर्चा की मांग कर रहा है तो क्या गलत है। दो दिन पहले महंगाई के मुद्दे पर भी चर्चा की विपक्ष की मांग को नजरअंदाज कर दिया गया था। इससे लगता है कि सरकार की नजर में महंगाई और किसान आंदोलन कोई गंभीर मुद्दे नहीं रह गए हैं।
साढ़े तीन महीने से चल रहे किसान आंदोलन में अब तक करीब करीब ढाई सौ किसानों की मौत हो चुकी है। सरकार के रवैए से हताश होकर कई किसान खुदकुशी भी कर चुके हैं। पिछले साल दिसंबर में पंजाब के एक वकील ने भी इसलिए जान दे दी थी कि किसानों के प्रति सरकार के रवैए से वे हताश हो गए थे। ये घटनाएं मामूली नहीं हैं। इन्हें साधारण मान कर दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसलिए जरूरी है कि नए कृषि कानूनों के मुद्दे पर सरकार सिर्फ अपना पक्ष रखने के बजाय खुले रूप से इन चर्चा कराए और विपक्षी सदस्यों की शंकाओं का समाधान करे, उनके सवालों का जवाब दे।
ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि किसानों की समस्या पर सभी को अपनी बात रखने का मौका मिल सके। सरकार पर शुरू से आरोप लगते रहे हैं कि नए कृषि कानूनों को उसने बिना किसी चर्चा के पारित करवा लिया था। अगर नए कृषि कानूनों को लागू करने से पहले सभी विपक्षी दलों और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से राय-मशविरा किया जाता तो आज किसानों को आंदोलन का रास्ता शायद नहीं अपनाना पड़ता।
सदनों में अगर महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है और विपक्षी सदस्यों को जनहित के मुद्दे नहीं उठाने नहीं दिए जाते हैं तो संसद का औचित्य ही क्या रह जाता है! संसद के सदनों में ही जनप्रतिनिधि राष्ट्र हित से जुड़े मुद्दों और समस्याओं को उठा सकते हैं और यहां होने वाली सार्थक चर्चा से ही गंभीर मुद्दों पर सहमति बनने और समस्याओं के समाधान का रास्ता निकलने की उम्मीदें बंधती हैं। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा, बल्कि सदन संचालन के नियमों का हवाला देकर विपक्षी सदस्यों को संवेदनशील मुद्दों को उठाने से रोका जा रहा है। ऐसे में जब विपक्ष हंगामा करता है तो सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी जाती है। संसद के सदनों की कार्यवाही पर भारी खर्च आता है और यह पैसा देश के करदाताओं का ही होता है, यह शायद कोई नहीं सोचता।
सौजन्य - जनसत्ता।
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