राजधानी दिल्ली के दो अलग-अलग इलाकों में तीन लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर देने की घटनाएं फिर इस बात को रेखांकित करती हैं कि विवेक या समझ और संवेदना के स्तर पर समाज किस स्तर तक छीजता जा रहा है। एक ओर आजादपुर मंडी में दो युवकों पर कुछ लोगों ने चोरी करने का शक जताया और वहां मौजूद भीड़ ने उन दोनों को बुरी तरह पीट-पीट कर मार डाला। रघुबीर नगर में हुई दूसरी घटना में दो पक्षों के बीच शोर मचाने को लेकर मामूली कहा-सुनी के बाद एक परिवार ने एक युवक पर हमला कर दिया, जिससे उसकी मौत हो गई।
सवाल है कि क्या महज शक, आरोप या फिर किसी का आपत्ति जताना ऐसा आधार हो सकता है, जिससे लोग इस कदर बर्बर हो जाएं कि जद में आए व्यक्ति की जान तक लेने से गुरेज नहीं करें? किसी के खिलाफ कोई आपत्ति होने या फिर चोरी का शक होने पर लोगों को पुलिस से बुलाने का अधिकार तो है, लेकिन अपने स्तर पर सजा तय कर देना कानून के खिलाफ है। विचित्र है कि इस तरह की मामूली बात ज्यादातर लोगों को क्यों नहीं समझ में आती है!
एक मजबूत लोकतंत्र और कानून-व्यवस्था के एक ठोस तंत्र के बीच यह कैसे संभव हो रहा है कि कहीं बेहद मामूली बात पर तो कहीं महज शक के आधार पर लोग किसी को पकड़ कर बर्बरता से पीट-पीट कर मार डालते हैं। क्या इसके पीछे लोगों के भीतर पुलिस और कानून का खौफ समाप्त हो जाना है? या फिर लोगों के भीतर किसी भी बात पर राय बनाने के पहले सोचने-समझने या अपने विवेक का इस्तेमाल करने की शक्ति छीज रही है? महज आरोप, अफवाह या शक जताने पर उकसावे में आकर लोग भीड़ में तब्दील होकर किसी पकड़ में आए व्यक्ति की हत्या तो कर देते हैं, लेकिन उसके अंजाम के बारे में वे अंदाजा तक नहीं लगा पाते।
अव्वल तो यह तय नहीं होता है कि जिस पर चोरी या किसी अपराध का आरोप लगाया जा रहा है, उसने वास्तव में वह अपराध किया ही है। ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं, जिसमें केवल शक के आधार पर भीड़ के हाथों जान गंवा बैठा कोई व्यक्ति बिल्कुल निर्दोष होता है। दूसरे, अगर उसने सचमुच कोई गैरकानूनी काम किया होता है, तो उसे सजा के अंजाम तक पहुंचाने के लिए बाकायदा एक कानूनी प्रक्रिया तय की गई है, जो अदालतों से गुजर कर जेल तक जाती है।
हैरानी की बात यह है कि भीड़ बन जाने वाले लोगों को यह पता होता है कि किसी भी अवांछित या आपराधिक गतिविधि करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। फिर भी भीड़ में शामिल हो जाने के बाद वे अपना विवेक ताक पर रख देते हैं और फिर उकसावे में आए बाकी लोग जिस तरह की हिंसा कर रहे होते हैं, वे भी वही करना शुरू कर देते हैं। जबकि हत्या किसी आरोपी की हो, तो उसे मारने वाला भी कानून के कठघरे में सजा का भागीदार होता है।
मगर आवेश में आए लोग अपने हित वाली ऐसी छोटी बातें भी समझने में सक्षम नहीं रह जाते। नतीजतन, भीड़ बन कर वे न केवल किसी निर्दोष को भी मार डालने में शामिल हो जाते हैं, बल्कि घटना के बाद खुद को भी सजा का भागी बना डालते हैं। निश्चित रूप से लोगों का ऐसा व्यवहार एक सभ्य सामाजिक प्रशिक्षण के अभाव में होता है, जिसमें किसी घटना पर अपने विवेक का इस्तेमाल करने के बजाय आमतौर पर उसी में बह जाना सामान्य माना जाता है। जबकि इसका नुकसान व्यक्ति, समाज और कानूनी कसौटी जैसे अनेक स्तर पर उठाना पड़ता है।
सौजन्य - जनसत्ता।
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