आजादी के सात दशक बाद भी अगर देश के बहुत सारे सरकारी स्कूलों में पीने का पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं तो यह अपने आप में सरकार की नीति-रीतियों पर एक बड़ा सवाल है कि शिक्षा का मसला उसके सरोकारों में किस प्राथमिकता पर है। यों सरकारी स्कूलों में बुनियादी ढांचे को लेकर पहले भी तमाम प्रश्न उठते रहे हैं और अक्सर सरकार इस समस्या को दूर करने का आश्वासन देती रही है। लेकिन आज भी हालत यह है कि देश के बयालीस हजार से ज्यादा सरकारी स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा नहीं है, जबकि पंद्रह हजार से अधिक स्कूलों में शौचालय भी नहीं है।
गुरुवार को केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने एक सवाल के जवाब में राज्यसभा को यह जानकारी दी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अक्सर आर्थिक चकाचौंध की तस्वीर के जरिए हर ओर विकास का जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे कौन-से सबसे जरूरी क्षेत्र को बदहाली के बीच छोड़ दिया गया है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों के दौरान देश भर में हर घर शौचालय को लेकर एक व्यापक अभियान चलाया गया, जिसके तहत बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घरों में शौचालय बनवाए। मगर देश भर के हजारों सरकारी स्कूलों पर सरकार की निगाह क्यों नहीं पड़ी, जहां हर रोज सैकड़ों बच्चे पढ़ाई करने जाते हैं?
पिछले कुछ दशकों में ऐसे तमाम अध्ययन सामने आए, जिनमें यह बताया गया है कि सरकारी स्कूलों के प्रति बच्चों का आकर्षण कम होने का कारण वहां पेयजल और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। जिन स्कूलों में ये सुविधाएं होती भी हैं उनमें से ज्यादातर जगहों पर आमतौर पर साफ-सफाई की हालत यह होती है कि उसका उपयोग एक तरह का जोखिम ही होता है। खासतौर पर शौचालयों में पानी का अभाव उसके होने को बेमानी बना देता है। ऐसी स्थिति में सरकारी स्कूलों की दशा-दिशा अगर दयनीय दिखती है तो इसमें हैरान होने वाली बात नहीं है। एक अहम तथ्य यह है कि स्कूलों में पेयजल और शौचालयों के अभाव का असर यों तो वहां पढ़ने वाले सभी बच्चों पर पड़ता है, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित बालिकाएं होती हैं। बल्कि बालिकाओं के स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने के एक महत्त्वपूर्ण कारणों में स्कूलों में शौचालयों का नहीं होना भी पाया गया है।
दूसरी ओर, शिक्षा का अधिकार अधिनियम के नियमों में स्कूलों में निर्धारित मानकों के तहत पेयजल और शौचालय की सुविधा सहित बुनियादी ढांचे की सभी चीजें अनिवार्य रूप से प्रदान करने की बात कही गई है। यह सुनिश्चित करना सभी सरकारों का दायित्व है। लेकिन अगर अब भी इतनी बड़ी तादाद में सरकारी स्कूल इन बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित हैं, तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है?
सवाल है कि अगर स्कूलों में बुनियादी ढांचे के अभाव की इस तस्वीर की वजह से बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बाधित होती है और इस तरह शिक्षा के अधिकार कानून का हनन होता है तो इसके कौन और किसके प्रति जवाबदेह होगा! विडंबना यह है कि एक ओर अर्थव्यवस्था के ऊंचे ग्राफ और बाजार की चकाचौंध का हवाला देकर देश के एक बड़ी आर्थिक शक्ति होने की तस्वीर पेश की जाती है, दूसरी ओर ऐसे तमाम स्कूल हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। सवाल है कि इस तरह के मानदंडों पर हुए विकास को कैसे आंका जाएगा? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पेयजल और शौचालय जैसी सबसे अनिवार्य सुविधाओं सहित बुनियादी ढांचे के सभी पहलुओं की मजबूती के बगैर बेहतर शैक्षिक माहौल और शिक्षा मुहैया नहीं कराई जा सकती। और इस तरह का शैक्षिक ढांचा आखिरकार देश की बुनियाद को ही कमजोर करेगा!
सौजन्य - जनसत्ता।
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