अरुण कुमार, अर्थशास्त्री
देश के बैंकिंग सेक्टर में इन दिनों खासा उथल-पुथल है। यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स (यूएफबीयू) के बैनर तले सोमवार और मंगलवार को नौ सरकारी बैंकों के कर्मचारियों ने हड़ताल की, और चेतावनी दी है कि यदि सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया, तो वे अनिश्चितकालीन आंदोलन पर उतरने को बाध्य होंगे। इस हड़ताल की वजह केंद्र सरकार का वह एलान है, जिसमें उसने कहा था कि आईडीबीआई सहित वह दो अन्य सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भरोसा दिया है कि ऐसा किए जाने के बावजूद बैंककर्मियों के हितों को अनदेखा नहीं किया जाएगा। मगर अतीत की घटनाएं बैंक कर्मचारियों को कहीं अधिक परेशान कर रही हैं। अपने देश में सबसे पहले भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण 1949 में हुआ था, जिसके बाद 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का हुआ। फिर जुलाई, 1969 में 14 अन्य बैंकों और 1980 में छह बैंकों को सरकार ने अपने अधीन ले लिया। लेकिन 1990 के दशक में ‘वाशिंगटन कन्सेंन्सस’ के तहत केंद्र सरकार निजीकरण की तरफ बढ़ने लगी, जिसका लब्बोलुआब यह है कि बाजार को आगे बढ़ाया जाए और अर्थव्यवस्था में सरकार का दखल कम से कम हो। इससे निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिलने लगा और सरकारी क्षेत्र पिछड़ता गया। हालांकि, इस ‘कन्सेन्सस’ को अपनाने के बाद संसार भर में असमानताएं बढ़ी हैं। सन 2005 के आसपास जाने-माने अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने अपने एक लेख में 2001 के आंकड़ों के हवाले से बताया था कि अमेरिका में जितनी गैर-बराबरी 1920 के दशक में थी, उससे कहीं ज्यादा 2000 के दशक में दिखने लगी है।
बैंकों के निजीकरण से भी कुछ ऐसे ही खतरे हैं। यह सही है कि अभी सरकार के पास संसाधनों का अभाव है, इसलिए राजस्व जुटाने के लिए उसने निजीकरण का सहारा लिया है। मगर इससे देश की आर्थिक तस्वीर कहीं ज्यादा स्याह हो सकती है। भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहां गरीबी पसरी हुई है। यहां की करीब 90 फीसदी आबादी गरीब है (गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले तो अति-गरीब हैं)। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही इन सबकी सुध लेते हैं। इसी कारण गांवों और कस्बों तक में सरकारी बैंकों की शाखाएं दिख जाती हैं। चूंकि निजी बैंक सामाजिक जवाबदेही से कन्नी काटते हैं, इसलिए वे वहीं अपनी शाखा खोलते हैं, जहां पर उनको फायदा नजर आता है। लॉकडाउन में भी लोगों की जितनी सेवा सरकारी बैंकों ने की, उतनी निजी बैंकों ने नहीं। चूंकि छोटे-छोटे अकाउंट को चलाने में खर्च ज्यादा है, इसलिए जन-धन खाते भी सरकारी बैंकों में ज्यादा खोले गए। नकदी का लेन-देन भी सरकारी बैंकों ने तुलनात्मक रूप से ज्यादा किया। यह सब इसलिए संभव हो सका, क्योंकि सरकारी बैंकों का मकसद लोगों की सेवा करना है, न कि नफे-नुकसान के आधार पर अपनी सेवाएं देना। अगर बैंकों को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा, तो संभव है, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों या विश्वविद्यालय जैसे बड़े-बड़े संस्थानों के वित्तीय लेन-देन में तो वे रुचि लेंगे, लेकिन गरीबों के छोटे-छोटे अकाउंट पर शायद ही उनकी नजर जाए। इससे उन सरकारी योजनाओं के भी बेअसर होने का खतरा होगा, जिनको फिलहाल सरकारी बैंकों के जरिए लाभार्थियों तक पहुंचाया जा रहा है। इसके अलावा, 1969 से पहले निजी बैंक अपनी ही कंपनियों को ज्यादा कर्ज बांटते थे। अब यह खतरा फिर से बढ़ सकता है। इससे अन्य वित्तीय कामों को नुकसान पहुंच सकता है। निजीकरण के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि सरकारी बैंकों पर एनपीए (डूबत कर्ज) काफी ज्यादा है। मगर इसकी एक वजह उन पर कई तरह की सामाजिक जिम्मेदारियों का होना भी है। लिहाजा, सरकार यदि इन जवाबदेहियों के बदले बैंकों को कुछ सब्सिडी दे, तो संभव है कि उनके एनपीए में कमी आ जाए।
बैंक कर्मचारियों का डर है कि निजी होते ही बैंकों से छंटनी शुरू हो जाएगी, क्योंकि निजी बैंकों को सामाजिक जिम्मेदारियों से जुड़े कर्मियों की शायद ही दरकार होगी। उनका यह डर वाजिब है, क्योंकि बैंकों के विलय के बाद भी कुछ कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया ही गया है। दुनिया भर में जहां-जहां विलय या निजीकरण हुए हैं, वहां रोजगार कम हुए हैं। यही कारण है कि सरकार पर निजीकरण के बहाने छंटनी की जमीन तैयार करने का आरोप बैंककर्मी लगा रहे हैं। यहां ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ भी एक बड़ा मसला है, जो बैंकिंग व्यवस्था में कहीं गहरे तक प्रभावी है। असल में, यह ऐसी अनधिकृत व्यवस्था है, जिसमें उद्योगपतियों के हित में सरकारी प्रशासन काम करता है। इसी कारण यहां बैंकों में राजनीतिक दखल अधिक है और वे उद्योगपतियों के लिए काम करते दिखते हैं। सरकारी बैंकों के एनपीए बढ़ने का एक बड़ा कारण यही है। इससे उनका लाभ कम हो जाता है। लिहाजा, इन बैंकों को सरकार सस्ते दाम पर अपने करीबी ‘क्रोनी’ को दे सकती है। अभी निजीकरण का सही वक्त है भी नहीं। महामारी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पहले ही सुस्त है, जिसके कारण बाजार में बैंकों का सही मूल्य नहीं मिल सकेगा और नुकसान अंतत: सरकारी खजाने को होगा।
इन सबके बीच केंद्र सरकार ने मंगलवार को एक नए ‘विकास वित्त संस्थान’ के गठन को मंजूरी दी है, जो इन्फ्रास्ट्रक्चर की बड़ी परियोजनाओं को दीर्घकालिक कर्ज देने का काम करेगा। सरकार का यह फैसला भी बहुत दूर तक जाता नहीं दिखता। बड़ी परियोजनाओं को बेशक लंबे समय तक फाइनेंस की जरूरत होती है और सामान्य बैंकों को जमाकर्ताओं से कम समय के लिए पैसे मिलते हैं। लेकिन पूर्व में आईसीआईसीआई, आईएफसीआई, आईडीबीआई जैसे बैंक दीर्घावधि के लिए फंड मुहैया कराते थे, तो वह बिना सरकारी मदद से संभव नहीं होता था। फिर, इन्फ्रास्ट्रक्चर में हमने उन परियोजनाओं को ज्यादा महत्व दिया है, जिनकी लागत काफी ज्यादा है। मसलन, यातायात में ही रेल के बजाय सड़कों पर ज्यादा ध्यान दिया गया और लंबे-लंबे हाईवे बनाए गए। पर आर्थिक तंगी की वजह से लोग सड़क के बजाय ट्रेन से ही लंबी दूरी तय करना पसंद करते हैं। नतीजतन, ‘हाई कॉस्ट’ परियोजनाएं घाटे में चल रही हैं और उनमें निवेश करने वाले बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है। यह समस्या ‘विकास वित्त संस्थान’ के सामने भी आएगी ही। लिहाजा, हमें कम लागत वाली छोटी परियोजनाओं पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। अन्यथा, नए बैंक के एनपीए की भरपाई भी सरकार को ही करनी पड़ सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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