कोरोना संकट से चरमराती अर्थव्यवस्था के बीच दो दिन की हड़ताल के साथ लगातार पांच दिन सरकारी बैंकों में कामकाज बंद रहना देश की आर्थिकी और उपभोक्ता हितों के नजरिये से कतई तार्किक नहीं है। मोदी सरकार ने बजट सत्र के दौरान ही संकेत दे दिया था कि देश में इस साल दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जायेगा। अत: देश के लाखों बैंक कर्मचारियों में भय का वातावरण पैदा होना स्वाभाविक था, जिसके चलते सोमवार-मंगलवार को देश के बड़े बैंक कर्मचारी संगठन ‘यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन’ ने हड़ताल का आह्वान किया था। इसमें नौ बैंकों के अधिकारी व कर्मचारी संगठनों के करीब दस लाख कर्मचारियों ने भाग लिया।
दरअसल, सरकार ने यह तो कहा है कि दो बैंकों का निजीकरण किया जायेगा, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि किन दो बैंकों का होगा। सो सभी कर्मचारी नौकरी पर लटकती तलवार से आशंकित हैं। वे यह भी जानते हैं कि यदि कर्मचारियों के स्तर पर विरोध नहीं हुआ तो बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया में तेजी आ सकती है। दरअसल, पहले ही आईडीबीआई के निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है और इसमें बड़ी अंशधारक एलआईसी अपनी हिस्सेदारी बेचने की बात पहले ही कह चुकी है। एक समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में से किन्हीं दो बैंकों का निजीकरण हो सकता है, जिससे स्वाभाविक रूप से इन बैंकों के एक लाख तीस हजार कर्मचारियों में बेचैनी होना स्वाभाविक है। अन्य बैंकों के कर्मचारी और अधिकारी भी इनके समर्थन में सड़कों पर उतरे हैं, जिन्होंने सरकार को यह चेताने की कोशिश की है कि बैंकों के निजीकरण की राह उतनी आसान भी नहीं है, जितनी सरकार सोच रही है। आंदोलनकारी इस आंदोलन को लंबा खींचने के मूड में नजर आ रहे हैं, जिससे उपभोक्ताओं की मुश्किलें भी बढ़ती दिख रही हैं।
दूसरी ओर लगता नहीं कि सरकार की ओर से हड़ताली कर्मचारियों को मनाने की कोई गंभीर कोशिश हुई है। तीन दौर की वार्ताएं जरूर विफल हुई हैं। जब मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ और आंदोलनकारियों के समर्थन में राजनेताओं के ट्वीट आये तब मीडिया के जरिये सरकार की ओर से वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपनी बात कही। राहुल गांधी का कहना था कि सरकार लाभ का निजीकरण और हानि का राष्ट्रीयकरण कर रही है। इस पर निर्मला सीतारमण का कहना था कि यूपीए सरकार ने एक परिवार की भलाई के लिये भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरण किया और करदाताओं के पैसे का निजीकरण किया। जहां इंदिरा गांधी के समय बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, वहीं यूपीए के समय बैंकों में घाटे का राष्ट्रीयकरण हुआ। साथ ही वित्तमंत्री ने कहा कि प्रस्तावित प्रक्रिया में सभी बैंकों का निजीकरण नहीं होगा, जिन बैंकों का होगा उनके कर्मचारियों के हितों की रक्षा की जायेगी। दरअसल, 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही कहा जाता रहा है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बात को जोर देकर कहा है जो बताता है कि सरकार निजीकरण के तरफ बढ़ चली है। वहीं पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने निजीकरण के प्रयासों पर संदेह जताते हुए कहा है कि यदि ये बैंक कॉर्पोरेट घरानों को बेचे जाते हैं तो यह एक बड़ी गलती होगी।
वहीं विदेशी बैंकों को बेचा जाना राजनीतिक गलती होगी। यदि किसी निजी बैंक का मालिक अपनी कंपनी के लिये ऋण लेता है तो उसे पकड़ने का तंत्र हमारे पास नहीं है। वे सुझाव देते हैं कि बैंकों के बोर्ड में पेशेवर लोग लाएं, उन्हें सीईओ को नियुक्त करने व हटाने का अधिकार हो। तब सरकार का नियंत्रण हटा लिया जाये। वाकई हर बीमारी का समाधान निजीकरण में नहीं है। बहरहाल, सरकार को बैंक कर्मचारियों का विश्वास भी हासिल करना चाहिए। साथ ही बैंकों को भी अपनी कार्यशैली में बदलते वक्त के अनुरूप बदलाव करना होगा।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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