रूस अफगाानिस्तान को लेकर सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है। गुरु वार को हो रहे सम्मेलन का उद्देश्य संकट के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग करना है ताकि क्षेत्र में शांति व्यवस्था बेहतर हो सके। रूस की इस पहल पर गौर करें तो यह उसका अपने देश की छवि सुधारने का प्रयास है। 1979 में सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में घुस कर दो प्रकार के विचारधारात्मक युद्धों को जन्म दिया। नतीजा यह कि एक ओर अमरीका पाकिस्तान के रास्ते रूस (कम्युनिस्ट) के दावे को कमजोर करने के लिए आ खड़ा हुआ, तो दूसरी ओर पाकिस्तान ने विभिन्न राष्ट्रों के इस्लामिक लड़ाकों को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
अमरीका के पास रूस की इस पहल का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि अफगान संकट के समाधान में अमरीका ने सैन्य ताकत तक लगा रखी है। अमरीका इस मुद्दे पर वैसे भी रूस और चीन से कोई विवाद नहीं चाहता क्योंकि इससे उसको कोई लाभ नहीं होने वाला। दूसरा, इससे उसे युद्ध और आतंक की जमीन अफगानिस्तान से बाहर निकलने का रास्ता मिलेगा। उसके लिए बेहतर ही होगा कि वह अकेले वहां बढ़ती हिंसक इस्लामिक ताकतों का गवाह न बने, बल्कि बाकी देश भी इसमें शामिल हों। तालिबान क्षेत्र में आइएसआइएस की ताकत बढ़ते देखना चाहता है। भले ही तालिबान और इस्लामिक राष्ट्र की लड़ाई जमीन को लेकर है, पर यह क्षेत्र की शांति के लिए खतरा बनी हुई है।
रूस ने 18 मार्च से शुरू हो रहे तीन दिवसीय सम्मेलन में अमरीका, ईरान, चीन, पाकिस्तान व अन्य देशों को आमंत्रित किया है। ईरान को अमरीका के साथ मंच साझा करने में कुछ आपत्ति है, क्योंकि अमरीका, इजरायल के साथ मिलकर इस शिया मुस्लिम राष्ट्र के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। यह देखना फिलहाल बाकी है कि अंतिम क्षणों तक क्या होता है? बेशक पाकिस्तान भी इसमें शामिल होगा। उसे होना ही पड़ेगा, क्योंकि बिना पाकिस्तान को साथ लिए तालिबान पर कोई तरकीब काम नहीं आने वाली। पाकिस्तान का ही गढ़ा गया तालिबान, अफगानिस्तान में न केवल सबसे बड़ी हिंसक ताकत बन चुका है बल्कि अफगानिस्तान के बड़े भू-भाग पर इसका नियंत्रण है। फिलहाल पाकिस्तान-चीन संबंध अलग तरह के बन चुके हैं और चीन शांति चाहता है क्योंकि इसे विध्वंसकारी तत्वों से वैसे ही खतरे की आशंका है। वह यह भी जानता है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता रही तो इसका असर उसके ‘वन बेल्ट वन रोड’ प्रोजेक्ट पर पड़ सकता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के कारण चीन की पाकिस्तान में गहन रुचि है।
सीपीईसी की सफलता पाकिस्तान और अफगानिस्तान में स्थिरता पर निर्भर करती है। इसलिए चीन भी प्रत्यक्ष तौर पर और पाकिस्तान के जरिये दोनों मोर्चों पर इस मामले में अपनी भूमिका निभाना चाहता है ताकि वह अपने लिए अनुकूल स्थितियां बना सके।
मास्को सम्मेलन में भारत आगंतुकों की सूची में शामिल नहीं है। इसके पीछे रूस के अपने निजी कारण हो सकते हैं। हो सकता है फिलहाल वह सिर्फ यह देखना चाहता हो कि शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने में बाकी देश किस हद तक मददगार साबित हो सकते हैं, या फिर रूस यह देखना चाहता हो कि भारत की अनुपस्थिति पर शेष राष्ट्रों की प्रतिक्रिया क्या रहती है। पाकिस्तान भारत की भागीदारी पर आपत्ति दर्ज करवा चुका है। देखना यह है कि भारत को कठघरे में खड़ा करने वाला पाकिस्तान कहीं खुद ही ‘काम बिगाड़ा’ न साबित हो जाए।
पाकिस्तान अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अफगाानिस्तान में तालिबान को बढ़ावा दे रहा है, जबकि भारत का मकसद अफगानिस्तान में केवल विकास को बढ़ावा देना है। भारत को चाहिए कि वह स्थिति पर निगरानी रखे और ऐसे सम्मेलनों में यदि शिरकत करे तो अपनी शर्तों पर।
- अरुण जोशी, दक्षिण एशियाई कूटनीतिक मामलों के जानकार
सौजन्य - पत्रिका।
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