आदिति फडणीस
अशोक लाहिड़ी भारत के शुरुआती दौर के चुनावी विश्लेषकों में से एक हैं। उन्होंने कई चुनावों में हार-जीत की कई भविष्यवाणियां की हैं। लेकिन क्या यह पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, लोक नीति विश्लेषक, अर्थशास्त्री और सांख्यिकीविद् रहे 70 वर्षीय लाहिड़ी की प. बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए काफी है?
वह उत्तर बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर जिले के बालूरघाट से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार हैं। उन्हें अलीपुरद्वार से इसलिए हटा दिया गया क्योंकि पार्टी ने महसूस किया कि स्थानीय दावेदार और भाजपा महासचिव सुमन कांजीलाल की बातों में एक तर्क है जब उन्होंने और भाजपा के अन्य समर्थकों ने लाहिड़ी की उम्मीदवारी का विरोध किया था। लाहिड़ी अपने पक्ष में कोई दमदार तर्क नहीं दे सके जब उन्होंने मासूमियत और ईमानदारी से कहा कि वह बाल्यकाल में ही अलीपुरद्वार गए थे जिससे कांजीलाल का दावा मजबूत हुआ कि यह निर्वाचन क्षेत्र किसी 'बाहरी' व्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं चाहता है।
अगर भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिलता है तब भाजपा की कई सूचियों में वित्त मंत्री के पद के लिए लाहिड़ी का नाम सबसे ऊपर है। राज्य में आज अगर भाजपा के लिए कोई क्षेत्र सबसे सुरक्षित है तो वह उत्तर बंगाल है जिसमें दार्जिलिंग, कलिम्पोंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुर द्वार, कूचबिहार, उत्तर दिनाजपुर और दक्षिण दिनाजपुर जैसे जिले शामिल हैं। एक साथ यह क्षेत्र 294 सदस्यीय विधान सभा में 54 विधानसभा सीटों का योगदान देता है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उत्तर बंगाल की आठ में से सात सीटों पर जीत हासिल की थी।
लेकिन क्या लाहिड़ी वाकई इस क्षेत्र के लिए 'बाहरी' व्यक्ति हैं? उनके बचपन के दोस्त और सहकर्मी ओंकार गोस्वामी कहते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। वह दावा करते हैं, 'अशोक बंगाली लड़का है।' लाहिड़ी का संबंध एक मध्यमवर्गीय परिवार से है और उन्हें वह सभी मूल्य सिखाए गए हैं जो ऐसे परिवारों में परवरिश के दौरान सिखाए जाते हैं, मतलब संस्कृति और धर्म के लिए समान भाव रखना, एक हिंदू होने की चेतना के साथ ही दूसरे समुदायों के प्रति सहिष्णुता का भाव होना आदि। पैसे के प्रति स्वस्थ आकांक्षा हो पर कोई अतिवादिता नहीं हो। उन्होंने बंगाल के मशहूर प्रेसीडेंसी कॉलेज में मशहूर लोगों के बेटे की तरह ही अपने जीवन की शुरुआत की और शोध करने तथा पढ़ाने के लिए दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से जुड़े और बाद में वह दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर के तौर पर जुड़े।
1980 के दशक में आर्थिक उदारीकरण को लेकर ज्यादा सक्रियता नहीं थी । लेकिन कहीं न कहीं सरकार के भीतर भी आधुनिक भारत के माध्यम से एक प्रायोगिक रास्ता अपनाने का अहसास था। कुछ बेहद प्रतिभाशाली लोग विदेश चले गए थे लेकिन उन्हें उन्होंने भारत लौटना चुना और वे व्यवस्था में अपना योगदान देने के लिए धैर्यपूर्वक इंतजार कर रहे थे। भारतीय बुद्धिजीवियों के एक समूह 'दि पॉलिसी ग्रुप' ने भारत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई लेकिन अफसरशाही की आत्ममुग्धता और मानसिक संकीर्णता से उन्हें निराशा भी हुई। उसी दौरान कंसल्टेंसी और थिंक टैंक-वाद का पहली बार उभार हुआ। प्रणय रॉय ने उस टीम का नेतृत्व किया जिसके लाहिड़ी एक अहम सदस्य थे और उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा मैक्रो-इकनोमेट्रिक मॉडल बनाया। टीम ने सरकार और कारोबार को समान रूप से नीतिगत सलाह की पेशकश की। भारत के लिए कंप्यूटर नए थे लेकिन यह टीम संसाधन के मूल्य को जानती थी। चाहे चुनावों का विश्लेषण करना हो या व्यापक स्तर पर नीतियों में हस्तक्षेप के नतीजों का अनुमान लगाना हो वे इसे पूरे आत्मविश्वास और ऊर्जा के साथ कर सकते थे।
लेकिन यह दौर लंबे समय तक नहीं चल पाया। चुनाव विश्लेषण के साथ ही रॉय को एनडीटीवी की मंजिल मिली। इसकी शुरुआत मशहूर शो 'दि वल्र्ड दिस वीक' से हुई। जब एनडीटीवी का संचालन हो रहा था तब पॉलिसी ग्रुप ने सहमति दी कि रॉय को टीम के अन्य सदस्यों की तुलना में अधिक प्रसारण का वक्त मिलना चाहिए। लाहिड़ी इस बात पर सहमत नहीं थे। उन्होंने पैसे कमाने का इरादा करते हुए भारत छोड़ दिया। हालांकि उनका इतने लंबे समय तक बाहर रहने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक ने उन्हें करीब एक दशक तक दूर रखा। उन्हें विदेश में ही बसने का विचार कभी नहीं भाया।
जब उनकी स्वदेश वापसी हुई तब वह राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान के निदेशक पद पर आसीन हुए। यह पूछे जाने पर कि मनमोहन सिंह की सरकार को सलाह देने वाले व्यक्ति भाजपा के लिए विधानसभा उम्मीदवार कैसे बन गए, इस सवाल पर पार्टी के एक वरिष्ठ नेता थोड़ा खीझ के साथ कहते हैं, 'लेकिन उनको मुख्य आर्थिक सलाहकार अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाया था।' साल 2002 से 2007 तक उन्होंने मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में पहले जसवंत सिंह और फि र पी चिदंबरम के लिए काम किया। यह उनके विचारों में उदारता का भी एक परिणाम था। इसके बाद एडीबी में उनका एक कार्यकाल पूरा हुआ। माना जाता है कि 2014 में उन्होंने भाजपा के घोषणा पत्र में भी अपना योगदान दिया था, हालांकि इस बात की पुष्टि नहीं की जा सकी है।
लाहिड़ी ने 2016 की नोटबंदी से हुई परेशानी को लेकर आलोचना की लेकिन उन्होंने कुल मिलाकर इस पर गोलमोल ही जवाब दिया मसलन 'समय ही बताएगा' आदि। भाजपा बंगाल में अपनी छवि को बेहतर करने की कोशिश कर रही है जिसमें बड़ी तादाद में तृणमूल कांग्रेस से आए लोगों को शामिल किया गया है जिन पर भाजपा पहले आरोप लगाती रही है। निश्चित तौर पर लाहिड़ी मूल्यवान चेहरा हैं। वह धाराप्रवाह बांग्ला बोलते हैं और उनकी हिंदी भी अच्छी है। अगर पार्टी उनके जैसे व्यक्ति को नहीं जिता सकती है तब पार्टी को बेहद अफसोस होना चाहिए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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