मनमानी का प्रदर्शन (जनसत्ता)

वेब शृंखला तांडव के खिलाफ देश की विभिन्न अदालतों में मुकदमे दर्ज कराए गए हैं। उनमें फिल्म के निर्माता, निर्देशक सहित पांच को गिरफ्तार करने की मांग की गई है। इस पर फिल्म से जुड़े लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत पर गुहार लगाई थी। उस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि कुछ वेब शृंखलाओं में अश्लीलता परोसने का प्रयास हो रहा है। हालांकि इन फिल्मों, कार्यक्रमों के खिलाफ किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने देश की विभिन्न अदालतों में दर्ज सारे मुकदमों को एक जगह इकट्ठा करने और उन पर सुनवाई का आदेश दिया है। तांडव से जुड़े लोगों को अभी कोई राहत नहीं मिल पाई है। इस तरह अदालत की इस टिप्पणी से सरकार को यह विचार करने का मौका जरूर मिलता है कि वह इंटरनेट के जरिए संचालित विभिन्न मंचों पर अंकुश लगाने के लिए क्या उपाय करे। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री परोसने के विरुद्ध केंद्र ने कुछ कड़े दिशा-निर्देश जारी किए थे। उसे लेकर काफी आलोचना हुई थी कि सरकार सोशल मीडिया की स्वतंत्र आवाजों को दबाने के मकसद से ये दिशा-निर्देश लेकर आई है। मगर सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ वेब शृंखलाओं में अश्लीलता परोसने का प्रयास हो रहा है और उनकी स्क्रीनिंग की जरूरत है। जबसे इंटरनेट का चलन बढ़ा है, मनोरंजन की दुनिया तेजी से फैलनी शुरू हो गई है। उसमें बहुत सारे बंधन भी टूटे हैं। अब फिल्म निर्माता बड़े परदे पर निर्भर नहीं रह गए हैं, उन्हें फिल्म प्रमाणन बोर्ड की इजाजत की जरूरत नहीं रह गई है। अब फिल्में और मनोरंजन की दूसरी बहुत सारी चीजें दिखाने वाले देश और दुनिया में अनेक मंच तैयार हो गए हैं। इन मंचों के तैयार होने से माना गया कि कला के क्षेत्र में लगी बंदिशें हटेंगी और कला स्वाभाविक रूप से अपना विकास कर सकेगी। फिल्म निर्माताओं को यह भय नहीं सताएगा कि क्या सामग्री प्रमाणन बोर्ड आपत्तिजनक करार देकर हटाने को कह सकता है। इस तरह इन मंचों को एक खुली और आजाद जगह के तौर पर देखा जाने लगा। यही वजह है कि बहुत सारे फिल्म निर्माता, जो बड़े परदे के लिए फिल्में बनाते समय प्रमाणन बोर्ड की वजह से असहज महसूस किया करते थे, उन्होंने ओटीटी यानी ओवर द टॉप का रुख कर लिया। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कला में आजादी का अर्थ कुछ निर्माता-निर्देशकों ने निरंकुशता लगा लिया है। पिछले कुछ समय में आई कई वेब शृंखलाओं में अश्लील दृश्य, संवाद और आपत्तिजनक सामग्री जानबूझ कर भरी दिखाई देती है। यह ठीक है कि प्रदर्शनकारी कलाओं की गुणवत्ता का फैसला उसके दर्शकों-श्रोताओं पर निर्भर करता है। मगर इस आधार पर कुछ भी करने, दिखाने की छूट लेना कला का प्रदर्शन नहीं, बल्कि मनमानी ही कही जाएगी। बहुत सारी चीजों का फैसला समाज खुद करता है, मगर जब किसी कला की वजह से समाज पर बुरा असर पड़ता नजर आता है या समाज के किसी खास तबके की भावना आहत होती है, तो उस पर आपत्ति उठना स्वाभाविक है। हर समाज की अपनी अलहदा बनावट होती है, उसकी अपनी कुछ मर्यादाएं, कुछ मूल्य होते हैं। भारत जैसे देश इस मामले में कुछ अधिक संवेदनशील हैं। इसलिए कलाकारों से स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वे उनका ध्यान रखते हुए ही रचें-बनाएं।


सौजन्य - जनसत्ता।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment