नए कृषि कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग को लेकर चल रहे किसान आंदोलन को सौ दिन पूरे हो चुके हैं। लेकिन अभी भी दूर-दूर तक ऐसे आसार नजर नहीं आ रहे जिनसे समस्या के समाधान का कोई संकेत मिलता हो। यह दुखद स्थिति है। कारण साफ है कि दोनों ही पक्ष विवेक से काम लेने के बजाय हठधर्मिता का रुख धारण किए हुए हैं। किसान संगठन शुरू से कहते आए हैं कि जब तक विवादास्पद कृषि कानूनों को सरकार वापस नहीं ले लेती तब तक आंदोलन जारी रहेगा। दूसरी ओर सरकार ने भी कानूनों को वापस लेने से साफ इंकार कर दिया है। इस टकराव में ही सौ दिन निकल गए। इसलिए अब सवाल उठ रहा है कि किसान आखिर कब तक आंदोलन करते रहेंगे। सरकार यह मान कर बैठ गई है कि आंदोलन जितना लंबा खिंचेगा, स्वत: ही कमजोर पड़ने लगेगा, किसान संगठनों में फूट पड़ने लगेगी, अपने नेताओं के प्रति किसानों में रोष पैदा होने लगेगा और अंतत: किसान लौट जाएंगे। लेकिन अगर ऐसा होना होता तो किसान लौट कब के ही लौट चुके होते! मोर्चे पर डटे रहने के लिए किसान संगठन अब नए-नए तरीके अपना रहे हैं। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में हो रही महापंचायतों में उमड़ने वाली लाखों किसानों की भीड़ इस बात का प्रमाण है कि किसान आंदोलन कमजोर नहीं पड़ रहा, बल्कि दिनोंदिन मजबूत हो रहा है। देश के दूसरे राज्यों के किसान भी आंदोलन को पुरजोर समर्थन दे रहे हैं। किसानों का जज्बा बता रहा है कि अवरोधकों से उन्हें नहीं रोका जा सकता। दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने अब तेज गर्मी से निपटने के लिए इंतजाम शुरू कर दिए हैं। जाहिर है, किसान सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना अपने हक की लड़ाई को और धार दे रहे हैं। महापंचायतों, चक्का जाम और ट्रैक्टर रैलियों से जो संदेश निकल कर आ रहे हैं उनका मतलब साफ है कि किसान अब पीछे नहीं हटने वाला। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि किसान आंदोलन को खत्म कराने में सरकार का प्रंबधन कहीं न कहीं कमजोर और अक्षम साबित हो रहा है। वरना क्या कारण है कि भारी-भरकम तंत्र होने के बावजूद सरकार किसानों को इस बात के लिए आश्वस्त नहीं कर पा रही है कि नए कृषि कानून उनके हित में हैं! आखिर क्या कारण है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को बनाए रखने की बात लिखित में देने को तो तैयार है, लेकिन उसके लिए कानून बनाने को तैयार नहीं है? सरकार को यह स्पष्ट करने में कोई अड़चन होनी ही नहीं चाहिए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी शक्ल देने में आखिर क्या मजबूरी है। बारह दौर की बातचीत में भी अगर किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता है तो उसके लिए कोई एक पक्ष नहीं, दोनों पक्ष जिम्मेदार हैं। किसान संगठनों को भी फिर से इस पर विचार करना चाहिए कि नए कृषि कानून के जितने भी बिंदुओं पर आपत्ति है, उन सभी पर सरकार के साथ खुल कर बात हो। सरकार के पास हर तरह के विशेषज्ञ हैं, कृषि अर्थशास्त्री, कृषि विशेषज्ञ, बाजार विशेषज्ञ, पेशेवर, किसान पृष्ठभूमि वाले मंत्री-सांसद सब हैं। इसलिए हैरानी होती है कि आखिर इतना बड़ा तंत्र किसानों को संतुष्ट क्यों नहीं कर पा रहा। किसान आंदोलन अभी तक शांतिपूर्ण रहा है, हालांकि बीच-बीच में अप्रिय घटनाओं से इसे पटरी से उतारने की साजिशें भी हुईं। ऐसे में नए खतरे सामने आ जाते हैं। बेहतर हो कि राजनीतिक नफे-नुकसान को अलग रख कर सरकार और किसान संगठन खुले दिमाग से सोचें और समाधान की ओर बढ़ें।
सौजन्य - जनसत्ता।
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