चुनाव में चोटिल होना (नवभारत टाइम्स)

बुधवार को नंदीग्राम में नामांकन दाखिल करने के बाद जिस तरह के घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी घायल हुईं और फिर जिस तरह का माहौल बना, वह पूरा प्रकरण चिंताजनक है। शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक उनके पांव, कंधे और गर्दन में चोटें आई हैं। अगले दिन हॉस्पिटल बेड पर उनकी तस्वीरें भी आईं जिनमें उनके बाएं पैर में प्लास्टर दिख रहा है। इस पूरे मामले की निष्पक्षता से जांच होनी चाहिए ताकि स्पष्ट हो सके कि क्या हुआ और कैसे हुआ। इसके साथ ही ममता बनर्जी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना प. बंगाल के चुनाव से किसी भी रूप में जुड़े हर राजनेता को बिना किसी हीलाहवाली के करनी चाहिए। जो बात इस प्रकरण में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है, वह यह कि चुनावी लड़ाई को युद्ध की तरह लड़ने के आदी होते जा रहे हमारे राजनीतिक दलों में पारस्परिक शिष्टाचार के न्यूनतम विवेक की भी किल्लत होती जा रही है।


ममता बनर्जी की मेडिकल रिपोर्ट संतोषजनक, स्वास्थ्य में मामूली सुधार, टखने की सूजन कम हुई


ममता के घायल होने की खबर आते ही उनकी हालत को लेकर जानकारी हासिल करने और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंता जताने के बजाय चुनाव में उन्हें सबसे ज्यादा आक्रामक होकर चुनौती दे रही पार्टी के छोटे-बड़े तमाम नेताओं ने यह संदेह जताना शुरू कर दिया कि ममता ने हमले की फर्जी कहानी रची है। बीजेपी के शीर्ष नेताओं की बात ही छोड़िए, केंद्रीय मंत्रियों में से भी किसी ने घटना की निंदा करते हुए या ममता के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हुए कोई ट्वीट नहीं किया। कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे के एक नेता आनंद शर्मा ने जरूर यह औपचारिकता निभाई, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों में पार्टी की अगुआई कर रहे अधीर रंजन चौधरी ने साफ-साफ कहा कि ममता ने लोगों की सहानुभूति पाने के लिए यह पाखंड रचा है। दिलचस्प बात यह कि खुद ममता बनर्जी का व्यवहार भी इस मामले में कुछ खास अच्छा नहीं रहा है। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल के ही दक्षिण 24 परगना जिले में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव की खबर आई थी तो ममता बनर्जी ने उसकी सत्यता पर इसी तरह सवाल उठाते हुए संदेह जताया था कि हमले की फर्जी शिकायत की जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह सर्वथा नई परिस्थिति है। चुनावी लड़ाइयां तो हमेशा से होती रही हैं। इन लड़ाइयों में दांव पर सत्ता भी हमेशा लगी होती है।


बावजूद इसके, अगर पिछले सात दशकों में विचारों, नीतियों और मुद्दों को नेताओं की निजी सुरक्षा और स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से अलग रखना संभव बना रहा तो कोई कारण नहीं कि अब ऐसा न हो सके। अगर आज ऐसा होता नहीं दिख रहा तो इसके कारण निश्चित रूप से आज की हमारी राजनीतिक संकीर्णता, ओछेपन और हद दर्जे की स्वार्थप्रियता में ही निहित होंगे। लेकिन कारण ढूंढ लेना समस्या के समाधान के लिए कभी काफी नहीं होता। समझना जरूरी है कि चुनावी हार-जीत को आत्मिक मूल्यों से ऊपर रखने की इस प्रवृत्ति पर अगर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो आम लोगों में दलीय तनाव बहुत बढ़ जाएगा और देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में पड़ जाएंगी।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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