अब तो बंद हो विभेद ( राष्ट्रीय सहारा)

संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकसित नहीं हो सकता है जब तक कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की समान भागीदारी न हो जाए। यही वजह रही कि डॉ. अंबेडकर ने मौलिक अधिकारों को संविधान की धारा १४ से लेकर धारा १८ तक में परिभाषित करते हुए लैंगिक विभेद को भेद माना और इसके लिए प्रावधान किया कि राज्य किसी भी नागरिक‚ फिर चाहे वह स्त्री ही क्यों न हो‚के समान अधिकार सुनिश्चित करे।


 खैर‚ यह संविधान की बात है। हकीकत कुछ और ही है। महिलाओं की भागीदारी लगभग हर क्षेत्र में पुरु षों की तुलना में बहुत कम है। फिर चाहे वह शासन–प्रशासन का मामला ही क्यों न हो। बीते ८ मार्च‚ २०२१ को पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की धूम रही। भारत में भी इसे महkवपूर्ण उत्सव के रूप में मनाया गया। यहां तक कि संसद में भी महिलाओं को विशेष अवसर दिए गए। देश के विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं को सदन के संचालन की जिम्मेदारी तक दी गई। यह सब इसलिए किया गया ताकि महिलाओं को सशक्त बनाया जा सके लेकिन आश्चर्यजनक यह कि इस साल भी कहीं भी किसी ने भी संसद में महिलाओं के लिए ३३ फीसदी आरक्षण का मामला नहीं उठाया। न तो विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा और ना ही सत्ता पक्ष के द्वारा। यहां तक कि जिन राज्यों के विधानसभाओं में सदन का संचालन महिला सदस्यों द्वारा किया गया‚ वहां भी इस मुद्दे पर कोई बात नहीं हुई। 


 यह वाकई आश्चर्यजनक है कि एक समय सबसे महkवपूर्ण लगने वाला महिला आरक्षण का मुद्दा ठंडे बस्ते में इस तरह क्यों पड़ा है कि अब कोई नाम तक नहीं लेना चाहताॽ इसी सवाल पर विचार करते हैं‚ लेकिन इससे पहले जान लें कि वर्तमान लोक सभा में कुल ५४३ सांसदों में ७८ महिला सांसद हैं‚ और आजादी के बाद से यह अधिकतम आंकड़ा (करीब १४ फीसदी) है। वहीं‚ राज्य सभा में महिला सांसदों की संख्या २५ है। ध्यातव्य है कि लोक सभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी घटती–बढ़ती रहती है‚ लेकिन राज्य सभा में महिलाएं आजादी के साथ ही पिछड़ गइÈ। मतलब यह कि वर्ष १९५२ से लेकर अब तक कुल २०८ महिला सांसद निर्वाचित अथवा मनोनीत हुई हैं। इनमें उन प्रतिनिधियों के दूसरे अथवा तीसरे कार्यकाल भी शामिल हैं‚ जो एक बार से अधिक सदस्य बनीं। ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे संसद में महिलाओं की भागीदारी एक तिहाई के आधे से भी कम रही है। गौरतलब है कि वर्ष १९७४ में पहली बार संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी का सवाल उठा था। तब सत्तासीन रहीं इंदिरा गांधी ने यह पहल की। लेकिन आपातकाल के कारण मामला ठंडे बस्ते में चला गया। फिर १९९३ में यह सवाल मुखर हुआ और इस बार एक ठोस पहल की गई। संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के तहत पंचायतों तथा न्यायपालिका में एक तिहाई आरक्षण का कानून बनाया गया‚ लेकिन इसका संबंध संसद और विधानसभाओं में आरक्षण से नहीं था। संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण मिले‚ इस दिशा में पहली बार ठोस पहल करने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा को जाता है। उनकी सरकार ने १२ सितम्बर‚ १९९६ को ८१वां संशोधन विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया। इसके तहत महिलाओं को ३३ फीसदी आरक्षण देने की बात थी परंतु सरकार अल्पमत में आ गई और सरकार गिर गई।


 दरअसल‚ तब यह मामला उठा कि आरक्षण के अंदर आरक्षण हो। मतलब यह कि जिस तरह से ४९.५ फीसदी आरक्षण सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्गों को देय है‚ उसी हिसाब से संसद के अंदर भी हो। लेकिन तब कांग्रेस‚ भाजपा‚ वाम दल आदि इसके लिए तैयार नहीं हुए जबकि आरक्षण की राजनीति करने वाली पाÌटयां अड़ी रहीं। परंतु बाद की सरकारों ने भी अपना प्रयास जारी रखा। मसलन‚ २६ जून‚ १९९८ को वाजपेयी सरकार ने बिल लोक सभा में पेश किया। लेकिन सरकार इसे पारित नहीं करवा सकी और अल्पमत में आ गई। इसी प्रकार २२ नवम्बर‚ १९९९ को फिर से बिल लोक सभा में पेश किया गया और हश्र पूर्व की तरह ही हुआ। बाद में वर्ष २००२ और २००३ में भी वाजपेयी सरकार द्वारा विधेयक पेश किया गया लेकिन सरकार को असफलता हाथ लगी। फिर वर्ष २००४ का साल आया और कांग्रेस–नीत सरकार अस्तित्व में आई‚ जिसने अपने घोषणापत्र में महिलाओं के लिए संसद में ३३ फीसदी आरक्षण का वादा किया था। यूपीए सरकार को अपना वादा ६ मई‚ २००८ को याद आया और उसने एक विधेयक राज्य सभा में पेश किया। तब हंगामा हुआ और विधेयक को कानून एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति के पास भेज दिया गया। फिर १७ दिसम्बर‚ २००९ को स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट सदन में रखी‚ जिसका जदयू‚ राजद‚ सपा द्वारा यह कहकर विरोध किया गया कि सरकार पहले आरक्षित वर्गों की महिलाओं के लिए पृथक आरक्षण का विधेयक लाए। इस दिशा में अंतिम पहल ८ मार्च‚ २०१० को की गई जब मनमोहन सिंह सरकार द्वारा एक बिल राज्य सभा में पेश किया गया। तब भाजपा और वाम दल एक साथ इस मुद्दे पर आए लेकिन सरकार में शामिल राजद द्वारा इसका विरोध किया गया परंतु उसके विरोध के बावजूद ९ मार्च को बिल भारी बहुमत से पारित कराया गया। तब ऐसा लगने लगा था कि लोक सभा में सरकार इसे जल्द ही पारित करा लेगी और संसद में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी मिलने लगेगी लेकिन तब से यह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है।


 अब इसकी सुध न तो भाजपा के नेताओं द्वारा ली जा रही है‚ और ना ही विपक्ष के द्वारा। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि किसी राजनीतिक दल को इसके स्वरूप पर विरोध था तो यह मुमकिन था कि उसके लिए राह तलाशी जा सकती थी। लेकिन कहीं कोशिश नहीं की जा रही है। बहरहाल‚ मौजूदा केंद्र सरकार के पास राज्य सभा और लोक सभा‚ दोनों में स्पष्ट बहुमत है‚ और यदि वह चाहे तो महिलाओं के लिए ३३ फीसदी आरक्षण के लिए विधेयक आसानी से पारित कराया जा सकता है। लेकिन सरकार इस दिशा में सोच ही नहीं रही है। यह देश की आधी आबादी के साथ अन्याय नहीं तो क्या हैॽ॥ महिला आरक्षण के मुद्दे की सुध न तो भाजपा के नेताओं द्वारा ली जा रही है‚ और न ही विपक्ष के द्वारा। सवाल है कि किसी राजनीतिक दल को इसके स्वरूप पर विरोध है‚ तो उसके लिए राह क्यों नहीं तलाशी जाती। लेकिन कोशिश नहीं हो रही। मौजूदा सरकार के पास राज्य सभा और लोक सभा‚ दोनों सदनों में बहुमत है‚ और वह चाहे तो महिलाओं के लिए ३३ फीसदी आरक्षण का विधेयक पारित कराया जा सकता है ।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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