बिहार विधानसभा में जो अप्रिय स्थिति बनी, उसकी प्रशंसा कोई नहीं करेगा। साथ ही, इस मामले में जिस तरह राजनीति बढ़ रही है, वह भी कतई शुभ संकेत नहीं है। बुधवार को भी विधानसभा परिसर में खूब हंगामा हुआ। विपक्षी नेताओं, कांग्रेस और राजद के विधायकों ने परिसर में आंखों पर काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया। इन विधायकों की मांग थी कि विधानसभा में विधायकों के साथ हुए दुव्र्यवहार के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। बुधवार को विधानसभा की कार्यवाही में एक भी विपक्षी विधायक ने भाग नहीं लिया और बाद में कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करनी पड़ी। जो दुखद संकेत हैं, उससे यही लगता है कि अब अप्रिय स्थिति की गुंजाइश सदन में नहीं, बल्कि सड़कों पर बनेगी।
बिहार की राजनीति में विपक्ष की मजबूती किसी से छिपी नहीं है और सरकार विपक्ष को राजी या नाराज रखने के लिए क्या कर सकती है, यह विधानसभा उपाध्यक्ष के चुनाव में प्रदेश ने देख लिया है। संभव है, विधानसभा उपाध्यक्ष के चुनाव में हार की आशंका से भी विपक्ष को विरोध तेज करने की प्रेरणा मिली हो। यह आज की राजनीति में कोई नई बात नहीं है। जो भी जहां सत्ता में है, वह विपक्ष को कोई मौका या पद देना नहीं चाहता, तो बढ़ती सियासी तल्खी को कैसे रोका जाए? मंगलवार को विधानसभा में जो हुआ है, उसके बाद तो बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक 2021 का मामला कुछ नेपथ्य में चला गया।
इस विधेयक से विपक्ष की नाराजगी को समझना राजनीतिक रूप से भले जरूरी न हो, लेकिन अपराध रोकने के लिए सबको साथ लेकर चलना कितना जरूरी है, सब जानते हैं। बिहार में अब भी यदा-कदा ऐसी हिंसक घटनाएं हो जाती हैं, जिनके सामने हम पुलिस को हांफते देखते हैं। बिहार में आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए जान-माल की संपूर्ण सुरक्षा की बहाली कितनी जरूरी है, इसे प्रदेश के बाहर भी लोग समझने लगे हैं। दूसरे प्रदेशों में भी ऐसे कड़े कानून बने हुए हैं, जिनमें पुलिस को कुछ ज्यादा अधिकार दिए गए हैं। सरकार के अनुसार, नया कानून इसलिए लाया गया है, ताकि वर्तमान में कार्यरत बीएमपी को कुशल, प्रशिक्षित और क्षेत्रीय सशस्त्र पुलिस बल के रूप में विकसित किया जा सके। यह विधेयक किसी नए पुलिस बल का गठन नहीं करता, बल्कि 129 साल से सेवारत बिहार सैन्य पुलिस (बीएमपी) को विशेष सशस्त्र पुलिस बल के रूप में विकसित करने का लक्ष्य रखता है। शायद विपक्ष को विश्वास में लेने में कोई कमी रह गई।
जहां तक विधानसभा में मारपीट का प्रश्न है, तो आलोचना के निशाने पर आए सुरक्षा बलों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। सदन के अंदर किसी प्रतिनिधि से मारपीट सांविधानिक कृत्य नहीं है। जिन लोगों के हाथ जन-प्रतिनिधियों पर उठे हैं, वे कहां ड्यूटी करने लायक हैं, संविधान और लोक-व्यवहार की रोशनी में विचार कर लेना चाहिए। इसके साथ ही, विधायकों को भी ध्यान रखना होगा कि संविधान उन्हें अपनी बात रखने के लिए किस हद तक जाने की इजाजत देता है। सोचना ही चाहिए कि लोगों के बीच क्या संदेश गया है। क्या देश की विधानसभाओं में ऐसे दृश्य आम हो जाएंगे? क्या विधायकों को सुरक्षा बलों से मुकाबले के लिए तैयार होकर सदन में आना पड़ेगा? ऐसी कोई परंपरा नहीं बननी चाहिए, जो राज्य के दामन पर दाग बढ़ाती हो।
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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