एक साल बाद (हिन्दुस्तान)

पिछले साल इन्हीं दिनों जिस लॉकडाउन की शुरुआत हुई थी, उससे हम आज तक आजाद नहीं हुए हैं। भूलना कठिन है, संपूर्ण लॉकडाउन की अवधि चार बार बढ़ाई गई थी और उसके बाद से अब तक अनलॉक होने का सिलसिला चल रहा है। फिलहाल देश अनलॉक 10 से गुजर रहा है, मगर देश के करीब एक तिहाई हिस्से में फिर से लॉकडाउन का खतरा मंडरा रहा है। चिंता कायम है, सिर्फ यह महारोग ही मुसीबत नहीं है, उसके साथ समस्याओं का पूरा गिरोह सा चल रहा है। एक लाख साठ हजार से ज्यादा लोगों की मौत कोरोना से हुई है, लेकिन उससे कई गुना ज्यादा लोग अपनी माली हालत से बेहाल हुए हैं। कोरोना से हानि के अनेक आंकडे़ सामने आते रहते हैं और दिल केवल यही चाहता है कि जल्द से जल्द इससे मुक्ति मिले और इस चाह में लॉकडाउन से मुक्ति भी शामिल है। यह बहस तो अनंतकाल तक जारी रहेगी कि कोरोना ने ज्यादा नुकसान पहुंचाया या लॉकडाउन ने? यह बहस भी हमेशा रहेगी कि क्या लॉकडाउन ही बचाव का एकमात्र विकल्प था? 

इसी दुनिया में ताइवान जैसे देश भी हैं, जहां एक दिन भी लॉकडाउन नहीं लगा और बीमारी को भी पांव पसारने नहीं दिया गया। ताइवान का अध्ययन और अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। ऐसे तमाम देशों से हमें युद्ध स्तर पर सीखना चाहिए, जो बगैर लॉकडाउन के महामारी से लड़ गए। विशाल आबादी वाले भारत जैसे देश को यह सोचना और परखना होगा कि ऐसी संक्रामक बीमारियों की स्थिति में क्या हमारे पास लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है? क्या हम अपना काम करते हुए, सामान्य जीवन जीते हुए किसी महामारी से नहीं लड़ सकते? यहां यह विवेचना भी महत्वपूर्ण है कि लॉकडाउन का हमने कितना आदर किया है? लॉकडाउन तोड़ने वाले कितने लोगों को जेल भेजा गया? हमारी स्वच्छंदता और तंत्र की उदारता कई बार विचलित कर देती है। लॉकडाउन ने जहां समाज के धैर्य की परीक्षा ली है, वहीं कोरोना ने हमें नई जीवनशैली के बारे में सोचने पर विवश किया है। शारीरिक दूरी बरतना एक स्वभाव है। पर चौराहे से धर्मस्थल तक परस्पर शारीरिक दूरी बनाए रखना क्या हमारे लिए संभव है? क्या हम यह बात समझ पाए हैं कि भीड़ में न सुरक्षा संभव है, न भक्ति और न स्वस्थ सभ्यता? इस महामारी के बाद हमारे शिक्षा पाठ्यक्रम में एक अलग अध्याय जोड़कर नागरिक शास्त्र पढ़ाने की जरूरत बहुत बढ़ गई है। विशेषज्ञ अभी यह नहीं बता पा रहे कि कोरोना कब जाएगा, तो यह बताना भी संभव नहीं कि लॉकडाउन की आशंका कब खत्म होगी, अत: आगे हमारी सुरक्षा का एक ही रास्ता है, हम खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रोटोकॉल के तहत जीना सिखाएं। कोई शक नहीं, कोरोना ने हमारी चिंताओं को जितना बढ़ाया है, उससे कहीं ज्यादा चिंताएं लॉकडाउन की वजह से पैदा हुई हैं। आने वाले दिनों में समाज को ऐसी तैयारी करनी और दिखानी पड़ेगी, ताकि वह सरकार से कह सके कि बिना लॉकडाउन भी हम महामारियों से लड़ सकते हैं। वैसे समाजों, क्षेत्रों को पुरस्कृत-प्रोत्साहित करना भी जरूरी है, जिन्होंने लॉकडाउन और स्वास्थ्य दिशा-निर्देशों की बेहतर पालना की है। उससे भी जरूरी है, उन विभागों, समूहों और लोगों का सम्मान, जो लॉकडाउन के समय समाज-देश के काम आए।

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment