अभिव्यक्ति की आजादी आधुनिक भारत के नागरिकों द्वारा स्वनिÌमत संविधान के जरिए खुद को दी गई सबसे बड़ी नियामत है। चाहे मताधिकार का सदुपयोग हो अथवा निर्वाचित सरकारों की कारगुजारियों का समर्थन अथवा विरोध हो‚ हमने अपनी स्वतंत्र मगर समय–सापेक्ष एवं संतुलित अभिव्यक्ति के द्वारा शासन व्यवस्था में लोकतंत्र को जिंदा रखा है।
आजादी के बाद आंतरिक आपातकाल‚ बिहार प्रेस बिल एवं मानहानि विधेयक से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में दिखाई दी मगर देश की स्वायत्त लोकतांत्रिक संस्थाओं ने उन्हें पांव नहीं जमाने दिए। अब डिजिटल मीडिया‚ सोशल मीडिया प्लेटफार्मों एवं ओटीटी प्लेटफार्मों को केंद्र सरकार द्वारा नियमन के दायरे में लाने के लिए जारी दिशा–निर्देशों ने फिर सवाल उछाल दिया है कि क्या सरकार डिजिटल मीडिया को मुट्ठी में करना चाहती हैॽ हाल में व्हाट्सऐप द्वारा प्राइवेसी के नये मानक लागू करने की कोशिश पर सुप्रीम कोर्ट के दखल तथा ट्विटर द्वारा कुछ उपभोक्ताओं पर रोक लगाने का सरकारी आग्रह ठुकराने को भी इन दिशा–निर्देशों के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। सवाल यह भी है कि सरकार के चाहने भर से डिजिटल मीडिया क्या उसकी मुट्ठी में आ जाएगाॽ सरकार की मानकर ट्विटर‚ व्हाट्सऐप एवं फेसबुक अपने प्लेटफार्म का उपयोग करने वालों के संदेशों में दखल देने की कोशिश करें तब भी क्या उस महासागर में फेकन्यूज अथवा भड़काऊ जानकारी या टिप्पणी को ढूंढ निकालना आसान होगाॽ सरकार के कारण सोशल मीडिया के यह मंच यदि अपने एक उपभोक्ता से दूसरे उपभोक्ता तक ताने गए उनकी निजता के पर्दे यानी एंड टु एंड एंक्रिप्शन में ताकाझांकी करने पर उतारू हो गए तो फिर उनकी निजता के सम्मान के दावे का क्या होगाॽ
कानून एवं आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने नये नियमन–प्रावधानों के बारे में बताया है कि अदालती आदेश और सरकार द्वारा पूछे जाने पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को ‘बदनीयती' से परोसी गई सामग्री का स्त्रोत बताना होगा। यदि उपभोक्ताओं की गरिमा संबंधी कोई शिकायत आती है‚ खासकर महिलाओं की गरिमा से संबंधित तो प्लेटफार्मों को शिकायत दर्ज होने के २४ घंटे के अंदर उस सामग्री को हटाना पड़ेगा।
दिशा–निर्देशों के अनुसार डिजिटल मीडिया यानी वेबसाइट आदि को भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समान स्वानुशासन का पालन करना होगा। केंद्र ने कहा है कि जो दिशा–निर्देश जारी किए गए हैं‚ उन्हें तीन महीने में लागू कर दिया जाएगा। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के अनुसार ओटीटी प्लेटफॉर्म‚ डिजिटल मीडिया को अपने कामों की जानकारी देनी होगी।
नये नियम सूचना प्रौद्योगिकी कानून–२००० की धारा ६९ के अंतर्गत बने हैं। ये सूचना प्रौद्योगिकी मध्यवर्ती दिशा–निर्देश एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता नियम–२०२१ के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। इन नियमों में भारत की एकता–अखंडता‚ सुरक्षा‚ संप्रभुता‚ अन्य देशों से मैत्री‚ लोक व्यवस्था आदि पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली सामग्री के डिजिटल मीडिया पर प्रकाशन को निरुûत्साहित करने अथवा हटाने की व्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया है। व्यक्तिगत अथवा संस्थागत बदनामी‚ अश्लील‚ कुत्सित‚ बाल यौन शोषणपरक‚ मानसिक एवं शारीरिक निजता में घुसपैठ‚ लैंगिक अपमान एवं प्रताड़नापरक‚ चिह्नित करने‚ नस्लीय और नृजातीय आपत्तिजनक‚ काले पैसे को ठिकाने लगाने‚ जुए जैसी अनैतिक एवं असामाजिक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली और भारत के कानूनों की विरोधाभासी ऑनलाइन सामग्री को प्रकाशित नहीं किया जा सकता। ऑनलाइन सामग्री देने वाले दोषियों पर १० लाख जुर्माना और सात साल कैद की सजा हो सकती है।
सवाल है कि बहुधा व्यक्तिगत प्रतिबद्धता अथवा दर्शकों एवं पाठकों के सहयोग के बूते चल रहे डिजिटल समाचार पोर्टल नियमगत सारी औपचारिकता कैसे निभा पाएंगेॽ इसका आÌथक बोझ उठाने के दबाव में उन्हें पोर्टल मजबूरन बंद करना पड़ेगा। जाहिर है कि उससे इंटरनेट पर खुली अभिव्यक्ति की आजादी की खिड़की बंद होकर वहां भी कॉरपोरेट मीडिया हावी हो जाएगा। डिजिटल समाचार मीडिया के प्रकाशकों के लिए भी भारतीय प्रेस परिषद पत्रकारीय आचरण के नियमों तथा केबल टेलीविजन नेटवर्क्स नियमन कानून के तहत प्रोग्राम संहिता का पालन अनिवार्य करने का फरमान सुनाया गया है। इससे ऑफलाइन (प्रिंट और टीवी) तथा डिजिटल मीडिया समान कानूनी दायरे में आ जाएंगे। डिजिटल समाचार मीडिया प्रकाशकों को प्रेस परिषद की तरह स्वनियमन संस्था बनानी होगी। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी आचार संहिता लागू होगी। अदालत अथवा सरकारी संस्था यदि किसी आपत्तिजनक‚ शरारती ट्वीट या मैसेज के फर्स्ट ओरिजिनेटर की जानकारी मांगती है‚ तो कंपनियां उसे देने को बाध्य होंगी। हालांकि इससे इंटरनेट का निजता एवं स्वतंत्रता का सिद्धांत बेमानी हो जाएगा।
नियमन में देश की सुरक्षा‚ संप्रभुता‚ एकता एवं अखंडता की रक्षा का जो जिक्र है‚ उन सभी का दायरा असीमित है। इसलिए उनके तहत कार्रवाई संबंधी हरेक पहल में सरकारी पूर्वाग्रह की असीम गुंजाइश है। हालांकि सुदर्शन टीवी पर प्रसारित कुछ कार्यक्रमों को रुûकवाने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट को दखल करना पड़ा। इसलिए हरेक अभिव्यक्ति स्वनियमन की छलनी से छंटकर ही आनी चाहिए। हाल में अभिव्यक्ति की आजादी के अतिक्रमण संबंधी कुछ शिकायतों पर अदालतों ने भी पुलिस की कार्रवाई को निराधार बताया है।
भारतीय प्रेस परिषद की १९५० के दशक में स्थापना के पीछे भाव यही था कि प्रिंट मीडिया को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाया जाए। प्रकाशन के साथ ही व्यापक जनहित के लिए भी यह आवश्यक समझा गया। समाचारों के व्यापक प्रसार को बढ़ावा देने के लिए जरूरी समझा गया था। अभिव्यक्ति की आजादी के बूते भारत में निर्वाचित सरकारों पर देश के प्रभुता–संपन्न नागरिक अंकुश लगाए हुए हैं। नागरिकों के विवेक की सीमा जहां खत्म होती है‚ वहीं से कानून का दायरा शुरू होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन का अमूमन यही सिद्धांत लागू होता है। मगर जब निर्वाचित सरकार नागरिकों के विवेक में अतिक्रमण करने लगती हैं‚ तब नेताओं‚ अदालतों‚ संविधान और धर्म की मानहानि के सवाल हावी होने लगते हैं। इसलिए डिजिटल एवं सोशल मीडिया नियमन दिशा–निर्देशों के संदर्भ में निर्वाचित सरकारों को नागरिकों के विवेक और आलोचना के प्रति लचीला रुûख अपनाना होगा। ॥
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
0 comments:
Post a Comment