शेखर गुप्ता
लगातार दूसरी बार बहुमत से सरकार बनाने वाले नरेंद्र मोदी का वादा देश में एक नया उभार लाने का है। ऐसा उभार जो शायद पहले नहीं देखा गया। परंतु हकीकत में क्या हो रहा है? वही पुराना राग दोहराया जा रहा है, 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है।'
पिछले दिनों बहुत कम अंतराल पर दो बातें हुईं। पहले तो ब्रिटिश उच्चायुक्त को तलब किया गया क्योंकि ब्रिटिश संसद ने भारत के किसान आंदोलन पर बहस की। दूसरा, सरकार और उसके मुखर समर्थकों ने फ्रीडम हाउस जैसे पश्चिमी और विदेशी पैसे से चलने वाले संस्थान पर गुस्सा उतारा। कारण? उसने भारतीय लोकतंत्र का दर्जा स्वतंत्र से घटाकर आंशिक स्वतंत्र कर दिया था। आखिरी बार 1990 के दशक में ऐसा हुआ था जब भारत कश्मीर और पंजाब में अशांति समेत कई संकटों से गुजर रहा था। तब से भारत की रेटिंग में लगातार सुधार हुआ है। लेकिन बीते नौ वर्ष में इसमें नौ अंकों की गिरावट आई है। स्वतंत्र श्रेणी के निचले पायदान और आंशिक स्वतंत्र के ऊपरी पायदान पर रहने के बीच भी बस इतना ही अंतर है। मानो इतना ही काफी नहीं था कि स्वीडन के वी-डेम फाउंडेशन ने जले पर नमक छिड़कते हुए कह दिया कि भारत में निर्वाचित तानाशाही है। जाहिर है वी-डेम भी विदेशी और विदेशी फंडिंग वाला संस्थान है। इससे पहले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो किसानों के पक्ष में सहानुभूति भरा बयान दे चुके थे। ब्रिटिश संसद के बयान की तरह तब भी भारतीय राजनेताओं को प्रवासी सिख समुदाय के कारण वोट बैंक की चिंता सताने लगी थी। इसके बाद कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग, कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस, गायिका रियाना और अभिनेत्री सुजन सरंडन द्वारा किसान आंदोलन के पक्ष में किए गए ट्वीट का काफी विरोध हुआ। थनबर्ग द्वारा जारी टूलकिट को भारत को तोडऩे के नए एजेंडे की तरह देखा गया। मेरा मानना है कि साजिश का किस्सा कुछ यूं हो सकता है: थनबर्ग स्वीडिश हैं, वी-डेम भी स्वीडिश संस्थान है और बस निर्माता स्कैनिया भी जिसने एक रिपोर्ट जारी करके कहा कि उसके अधिकारियों ने भारत में अधिकारियों को रिश्वत दी। यानी यह मोदी के खिलाफ स्वीडन का षड्यंत्र है। बहरहाल यह एक मजाक है और ऐसे वक्त में जब हास्यबोध नदारद है, इस बात को साफ करना जरूरी है। लेकिन यह भी याद रखिए कि स्वीडन की जांच ने ही बोफोर्स मामले में रिश्वतखोरी का पता लगाया था जिसने कांग्रेस को बरबाद कर दिया था।
आपत्ति यह है कि आखिर विदेशी हमारे बारे में बोलने वाले कौन होते हैं? वे जानते ही क्या हैं? उन्हें हमारे आंतरिक मामलों में दखल क्यों देना चाहिए? उनके तरीके गलत और पूर्वग्रह से ग्रस्त होंगे। एक ऐसे देश के लिए यह अजीब है जिसने तीन दशक पहले बांहें फैलाए वैश्वीकरण का स्वागत किया था और उससे लाभान्वित भी हुआ। इसी भावना के साथ 2007 में भारत ने विश्व आर्थिक मंच के साथ मिलकर 'इंडिया एवरीव्हेर' को दावोस 2007 की थीम बनाया था। कह सकते हैं कि वह संप्रग के दौर की बेवकूफी थी और अब एक नया भारत उभर रहा है जो गलती नहीं करता। जिसे परवाह नहीं कि दुनिया उसके बारे में क्या सोचती है। हमें पता है कि हम क्या कर रहे हैं, आप अपना काम कीजिए। दिक्कत यह है कि हम वैश्विक स्तर पर रैंकिंग में हर सुधार का जश्न मनाते हैं।
प्रधानमंत्री स्वयं कारोबारी सुगमता सूचकांक में सुधार का जिक्र करते हैं कि दुनिया हमारी सफलता को चिह्नित कर रही है। या फिर यह कि हम वैश्विक नवाचार सूचकांक में शीर्ष 50 देशों में शामिल हैं (52वें से 48वें स्थान पर)। जब भी कहीं भारत की वैश्विक रैंकिंग में सुधार होता है तो चारों ओर खुशी का माहौल होता है। जब आपको दुनिया भर की तारीफ पसंद आती है तो आपको आलोचना भी सहनी पड़ती है। चाहे मामला हंगर इंडेक्स (भूख संबंधी सूचकांक) में गिरावट का हो (मेरे विचार में इसका नाम वैश्विक पोषण सूचकांक होना चाहिए) या प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक अथवा मानव विकास सूचकांकों में गिरावट का। कारोबारी सुगमता सूचकांक में सुधार की तरह यह भी हकीकत है। क्या हम अपनी मर्जी से चुनाव कर सकते हैं? यह सन 1970 के दशक के इंदिरा गांधी के काल जैसी बात है जब विदेशी ताकतों का हाथ होने या दुनिया के हमारे खिलाफ साजिश करने की बात कही जाती थी। या कुछ और पीछे जाएं तो जैसा इकबाल ने, 'सारे जहां से अच्छा...' में लिखा था कि -सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा।
जब प्रधानमंत्री को विदेशी पुरस्कार मिलते हैं तो इसकी खुशी मनाई जाती है। ये सरकार तमाम तरह की सरकारों से मिले हैं। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में उन्हें सामरिक साझेदारी मजबूत करने के लिए 'लीजन ऑफ मेरिट' सम्मान दिया गया जबकि वही अमेरिका फ्रीडम हाउस को भी फंड देता है। सऊदी अरब ने उन्हें 'ऑर्डर ऑफ अब्दुल अजीज अल सऊद सम्मान', फिलीस्तीन ने 'ग्रैंड कॉलर ऑफ द स्टेट ऑफ फिलीस्तीन' सम्मान, अफगानिस्तान ने 'स्टेट ऑर्डर ऑफ गाजी अमीर अमानुल्लाह' सम्मान, यूएई ने 'ऑर्डर ऑफ जाएद', मालदीव ने 'ऑर्डर ऑफ डिस्टिंगविश्ड रूल ऑफ निशान इज्जुद्दीन' सम्मान और रूस ने 'ऑर्डर ऑफ सेंट एंड्रूज' सम्मान से सम्मानित किया। यह सूची लंबी है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने उन्हें चैंपियन ऑफ अर्थ सम्मान दिया, बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने स्वच्छ भारत मिशन के लिए उन्हें 'ग्लोबल गोलकीपर अवार्ड' दिया जो उचित ही था।
हमें विदेशी मीडिया की आलोचना पसंद नहीं आती क्योंकि वह पक्षपातपूर्ण है? हमने 2014 और 2016 में तो शिकायत नहीं की जब टाइम मैगजीन ने मोदी को 'पर्सन ऑफ द इयर' घोषित किया। उसी पत्रिका ने 2012 में 'मोदी मींस बिजनेस' शीर्षक के साथ मोदी की तारीफ की थी। तब तो कहा गया कि वह 'गुजरात मॉडल' को बढ़ावा दे रही है। विश्व की शीर्ष कारोबारी पत्रिका फॉच्र्यून ने 2015 में उन्हें दुनिया के महानतम नेताओं की सूची में पांचवां स्थान दिया। नोटबंदी के बाद से मोदी की आर्थिक नीति की आलोचना करने वाली फोब्र्स पत्रिका भी अतीत में उन्हें दुनिया के ताकतवर लोगों में शुमार करती रही है।
विदेशी कॉर्पोरेट अवाड्र्स में कोटलर अवार्ड और सेरावीक अवार्ड शामिल हैं। सेरावीक एक सालाना साप्ताहिक सम्मेलन है। इसे लेखक और तेल, गैस एवं ऊर्जा विशेषज्ञ डेनियल येरगीन चलाते हैं। यह मैसाच्युसेट्स स्थित एक सलाहकार सेवा है जिसका पूरा नाम है केंब्रिज एनर्जी रिसर्च एसोसिएट्स यानी सेरा।
बहरहाल, यदि विदेशों से मिलने वाली तारीफ स्वीकार हैं तो आलोचना पर ऐसी निराशा क्यों? दुनिया भारत और उसके मौजूदा नेतृत्व की लोकप्रियता और ऊर्जा को स्वीकार करती है। यहां तक कि मैदम तुसाद ने मोदी की मोम की मूर्ति भी लगा दी है। लेकिन यही दुनिया लोकतांत्रिक भारत से अपेक्षाएं भी रखती है और जब वे पूरी नहीं होतीं तो शिकायत भी करती है। इन्हें सुना जाना चाहिए। कृपया यह मत कहिएगा कि अगर हालात इतने ही खराब हैं तो मैं यह लेख कैसे लिख सका? भारत अभी भी एक लोकतांत्रिक देश है लेकिन इसकी कमियां बढ़ती जा रही हैं। वरना दिशा रवि जेल में नहीं होतीं और डिजिटल समाचार माध्यमों पर नए नियम नहीं थोपे जाते। दुखद बात है कि हम इस स्थिति से पहले भी गुजर चुके हैं। सन 1980 के दशक में जब राजीव गांधी की दिक्कतें बढ़ रही थीं तब 1970 के दशक की विदेशी हाथ वाली कहानी वापस लौट आई। उन्होंने भी ऐसे लोगों को नानी याद दिलाने की धमकी दी थी।
सन 1990 के दशक में हालात अधिक खराब हो गए। उस समय वैश्विक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, फाउंडेशनों और सरकारों की ओर से लगातार हमले हो रहे थे। उसी समय जब अमेरिकी उपविदेश मंत्री रॉबिन राफेल ने कहा था कि कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं है तो उन पर जमकर हमले किए गए कि उन्होंने यह कहने का साहस कैसे किया? अब हम उस अवस्था में हैं जहां अमेरिका स्वाभाविक रणनीतिक सहयोगी है। क्वाड के साथ यह सहयोग बढ़ रहा है। भारत भी कभी न कभी शीर्ष पांच देशों के समूह में शामिल होना चाहता है। वादा किया जा रहा है हमारी अर्थव्यवस्था अनुमान से पहले 5 लाख करोड़ डॉलर की हो जाएगी। हमारी महत्त्वाकांक्षा वैश्विक, आर्थिक, रणनीतिक और नैतिक महाशक्ति, विश्वगुरु बनने की है। लेकिन हम मामूली आलोचना या असहमति पर तुनक जाते हैं। खुद को खुद नीचा दिखाने की यही परिभाषा है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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