महेश व्यास
पूरी दुनिया ने गत 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। यह महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों का जश्न मनाने का दिन है। यह इस पर भी नजर डालने का मौका है कि भारत महिलाओं की उपलब्धियों के संदर्भ में आज किस मुकाम पर है और किस दिशा में जा रहा है।
पिछले वित्त वर्ष में सूचीबद्ध कंपनियों के निदेशक मंडल में महिलाओं की तादाद 8 फीसदी से थोड़ी अधिक थी। खास बात यह है कि 64 फीसदी सूचीबद्ध कंपनियों में कम-से-कम एक महिला निदेशक जरूर मौजूद थीं। गैर-सूचीबद्ध कंपनियों के निदेशक मंडल में महिलाएं तीन फीसदी ही हैं और सिर्फ 11 फीसदी असूचीबद्ध कंपनियों में ही कम-से-कम एक निदेशक महिला है। कंपनी अधिनियम में 2014 में किए गए संशोधन ने हरेक सूचीबद्ध एवं बड़ी असूचीबद्ध कंपनी के लिए न्यूनतम एक महिला निदेशक को रखना अनिवार्य कर दिया था।
भारत में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों (सीईओ) के रूप में 1.7 फीसदी महिलाएं हैं। देखने में यह आंकड़ा भले ही छोटा लगे लेकिन महत्त्वपूर्ण है। पेप्सिको की इंद्रा नूयी और बायोकॉन की किरण मजूमदार शॉ जैसी महिलाएं प्रतिष्ठित नाम हैं। भारत में अरुणा रॉय, अरुंधती रॉय, मीरा नायर, अपर्णा सेन, दीपा मेहता, रोमिला थापर, इला भट्ट, और पहले के दौर में सरोजिनी नायडू, अमृता प्रीतम एवं महाश्वेता देवी जैसे नाम प्रभावशाली एवं प्रेरणादायी महिलाओं की लंबी सूची में शामिल हैं। वर्ष 2019 के चुनाव में जीतकर आए सांसदों में से 14 फीसदी से भी अधिक संख्या महिलाओं की थी। वर्ष 2014 के आम चुनाव में यह अनुपात 11 फीसदी से थोड़ा अधिक था जबकि 2009 के चुनाव में 11 फीसदी के करीब और 2004 में तो सिर्फ आठ फीसदी ही था। वर्ष 2008 में पेश किए गए महिला आरक्षण विधेयक में संसद की 33 फीसदी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने का प्रावधान रखा गया था लेकिन वह विधेयक कभी पारित ही नहीं हो पाया। यानी किसी कानूनी मदद के बगैर महिलाओं का विधायिका में प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के कुल अधिकारियों में पांचवां हिस्सा महिलाओं का है। यह अनुपात बेहतर हो सकता था, फिर भी यह न्यायपालिका में महिलाओं की संख्या से बेहतर है। उच्च न्यायालयों में हरेक नौ न्यायाधीश में से एक महिला है और सर्वोच्च अदालत के कुल 30 न्यायाधीशों में तो सिर्फ एक महिला ही है। गिनती मायने रखती है लेकिन असर की भी अहमियत कम नहीं होती। भारत में महिला राजनेताएं बेहद असरदार रही हैं।
इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, ममता बनर्जी एवं जयललिता जैसी महिला राजनीतिज्ञ या तो जनमानस पर खासा रखूख रखती रही हैं या अब भी रखती हैं। भारत में महिलाओं को आने वाले समय में ताकत एवं रसूख के ऊंचे मुकाम मिलना जारी रहेगा। शिक्षा का बढ़ता स्तर और पथप्रदर्शकों से मिलने वाली प्रेरणा महिला सीईओ, न्यायाधीश, प्रशासक एवं राजनीतिक-सामाजिक नेताओं की संख्या एवं अनुपात को बढ़ाने का काम करेगा। भारत में महिलाओं ने शिक्षा की जंग करीब दशक भर पहले ही जीत ली थी। वर्ष 2011-12 से लेकर 2015-16 के दौरान स्नातक होने वाले विद्यार्थियों में लड़कियों की संख्या 50 फीसदी थी। वहीं 2018-19 के दौरान अनुपात बढ़कर 53 फीसदी हो गया। ऐसा तब है जब जनसंख्या में महिलाओं का अनुपात 50 फीसदी से भी कम है। शिक्षा के बढ़ते अवसर और अनगिनत प्रेरणादायी कहानियों के बावजूद एक औसत भारतीय महिला कामकाजी होने से काफी दूर है।
वह कड़ी मेहनत तो करती है लेकिन उसे रोजगार नहीं मिला होता है। यह चुनौती नजर आती है कि भारतीय समाज महिलाओं को अपने घरों के बाहर काम करने को लेकर खासा पूर्वग्रह रखता है। शहरी इलाकों में एक महिला के घर से बाहर निकलकर काम करने का असली इम्तिहान होता है। सरकार की तरफ से कराए गए सावधिक श्रमबल सर्वे के मुताबिक वर्ष 2018-19 में शहरी क्षेत्र के 73.7 फीसदी पुरुष श्रम बाजार में शामिल थे जबकि शहरी महिलाओं का अनुपात सिर्फ 20.4 फीसदी ही था। इतनी कम भागीदारी के बावजूद महिलाओं को शहरी भारत में 9.8 फीसदी बेरोजगारी दर का सामना करना पड़ा जबकि पुरुष कामगारों के मामले में यह अनुपात सात फीसदी ही था। सवाल है कि श्रम बाजार में कम महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद समान रूप से शिक्षित एक महिला को पुरुष साथी की तुलना में ऊंची बेरोजगारी दर का सामना क्यों करना चाहिए? इस सर्वे के मुताबिक, 15 साल या उससे अधिक उम्र की सिर्फ 18 फीसदी शहरी महिलाएं ही 2018-19 में रोजगार में लगी थीं जबकि पुरुषों के मामले में यह अनुपात 68.6 फीसदी था। यह आंकड़ा परेशान करने के साथ एक पहेली भी है।
सीएमआईई के उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वे से हालात और भी नाजुक नजर आते हैं। 15 साल से अधिक उम्र वाली 8.4 फीसदी शहरी महिलाओं को ही रोजगार मिला था। वर्ष 2019-20 में यह आंकड़ा गिरकर 7.3 फीसदी पर आ गया था और वर्ष 2020-21 में तो इसके 6 फीसदी से भी नीचे आने के आसार हैं। फरवरी 2021 में शहरी महिला रोजगार दर 5.4 फीसदी पर आ गई। यह दर्शाता है कि हालात अब भी अप्रैल 2020 के 5 फीसदी स्तर से बेहतर नहीं हैं। भारतीय महिलाएं बहुत काम करती हैं। लेकिन उनका काम मुख्य रूप से घर के भीतर होता है, घर के सदस्यों की सेवा करने का। शहरों में घरों के बाहर महिलाओं की श्रम बाजार में भागीदारी उनकी बेहतर शैक्षणिक स्थिति की तुलना में बहुत कम है। केवल तीन स्थितियों में ही ऐसा हो सकता है। या तो भारतीय महिलाएं घर से बाहर जाकर काम नहीं करना चाहती हैं या उन्हें काम पर जाने की इजाजत ही नहीं है या फिर नियोक्ता ही उन्हें बेहतर शिक्षा के बावजूद अवसर देने को तैयार नहीं हैं। दूसरी एवं तीसरी स्थिति समाज के पूर्वग्रह को दर्शाती हैं और शायद पहली हालत की वजह भी हैं। भारतीय महिलाओं के पास शिक्षा, प्रेरणा एवं पसीना सबकुछ होते हुए भी समुचित रोजगार नहीं है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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