गृह मंत्रालय द्वारा इस सप्ताह संसद में प्रस्तुत किया गया राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (संशोधन) विधेयक, 2021 इस बात का एक और उदाहरण है कि मौजूदा केंद्र सरकार का किस प्रकार केंद्रीकरण की ओर झुकाव है और लोकतांत्रिक मानकों और संस्थानों के प्रति उसमें किस कदर अवमानना का भाव है। विधेयक केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि उप राज्यपाल (एलजी) को दिल्ली की निर्वाचित सरकार को श्रेष्ठ और अधिकार संपन्न बनाकर 20 वर्ष पुराने संविधान संशोधन तथा सर्वोच्च न्यायालय के तीन वर्ष पुराने आदेश को पलटने की मंशा रखता है।
दिल्ली को निर्वाचित विधानसभा वाले केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा 69वें संविधान संशोधन द्वारा पेश अनुच्छेद 239एए के जरिये मिला था। इस संशोधन के बाद बने सन 1991 के अधिनियम के माध्यम से शक्तियों और कर्तव्यों का एलजी और मुख्यमंत्री के बीच बंटवारा किया गया और दोनों के आपसी रिश्तों की शर्तें स्पष्ट की गईं। लब्बोलुआब यह कि केंद्र सरकार ने एलजी के माध्यम से जमीन, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था पर नियंत्रण अपने पास रखा। दूसरे मामलों में एलजी मंत्री परिषद की सलाह और सहायता से बंधा हुआ है। बहरहाल नए विधेयक के माध्यम से इस बात को अनिवार्य किया जा रहा है कि निर्वाचित सरकार किसी कार्यकारी कदम के पहले एलजी से अनिवार्य रूप से सलाह लेगी। विधेयक कई स्तरों पर चिंताजनक है। उदाहरण के लिए यह एक झटके में निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकारों को निष्प्रभावी बनाता है। यह प्रतिबंध उस समय खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है जब प्रदेश के सत्ताधारी दल का केंद्र के साथ मतभेद है।
इसमें दो राय नहीं कि आम आदमी पार्टी (आप) की राज्य पर मजबूत पकड़ है। पार्टी ने यह पकड़ रियायती दरों पर पानी, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं देकर बनाई है और उसने राष्ट्रीय राजधानी में भारतीय जनता पार्टी की ताकत को चुनौती दी है। दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से आप के पास 62 सीटें हैं। यह बात भी जाहिर है कि ताजा संशोधन के पीछे दिल्ली में आप के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा सरकार के गड़बड़ रिश्ते भी एक वजह रहे हैं। सन 2014 से 2018 के बीच पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ उनके रिश्ते अच्छे नहीं रहे। दिल्ली पुलिस के भ्रष्टाचार के विरोध में लुटियन दिल्ली में पटरी पर रातें बिताने से लेकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करते हुए एलजी के आधिकारिक आवास में नौ दिन तक धरने पर बैठने जैसे घटनाक्रम इसका उदाहरण हैं। ऐसा करके केजरीवाल ने एलजी के मनमाने अधिकारों को निहायत अपारंपरिक ढंग से चुनौती दी है।
सन 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था और जमीन जैसे मामलों के अलावा किसी मसले पर एलजी की सहमति की आवश्यकता नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि एलजी का दर्जा राज्य के राज्यपाल का नहीं बल्कि एक प्रशासक का है। हालांकि राज्य सरकार ने इस निर्णय को पूर्णाधिकार पत्र के रूप में पढ़ा कि उसे एलजी के पास फाइल भेजने की आवश्यकता नहीं है लेकिन हकीकत यह है कि दिल्ली का मौजूदा दर्जा अस्थिर और असमर्थनीय है। कानून व्यवस्था के मामले में भी राजधानी एकदम पिछड़ी हुई है। ऐसा इसलिए क्योंकि पुलिस बल का बड़ा हिस्सा आम नागरिकों के बजाय महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों, मंत्रियों और सांसदों की सुरक्षा में लगा रहता है। एक गैर निर्वाचित प्रतिनिधि के अधिकार बढ़ाने से दिल्ली की समस्याएं दूर नहीं होने वालीं। इससे केवल निर्वाचित सरकार का दायरा सीमित होगा। सत्ता की साझेदारी की व्यवस्था असंतोषजनक थी लेकिन आम जन को कम नागरिक अधिकार सौंपना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सही नहीं है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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