राहत के रास्ते (जनसत्ता)

 बाजार में अमूमन हर वस्तु की कीमतें बढ़ने का असर अब आम लोगों के उपभोग पर साफ दिखने लगा है। लेकिन महंगाई के बीच सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर जताई जा रही है कि अगर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में इसी रफ्तार से इजाफा किया जाता रहा तो आखिर लोगों के पास अपने जीवन को सामान्य बनाए रखने के लिए क्या विकल्प बचेंगे! सही है कि पेट्रोल का इस्तेमाल आमतौर पर वे लोग करते हैं, जिनके पास वाहन हैं। लेकिन कीमतों में बढ़ोतरी के हर मौके पर पेट्रोल के साथ-साथ डीजल के दाम भी बढ़ाए जाते हैं। यह अब एक सामान्य जानकारी है कि बाजार में आम उपभोग की वस्तुओं की आपूर्ति डीजलचालित वाहनों पर निर्भर है और डीजल के मूल्य में बढ़ोतरी के साथ ही माल ढुलाई पर ज्यादा खर्च आता है और इसका सीधा असर थोक और खुदरा बाजार पर पड़ता है। इस तरह बाजार में अगर महंगाई की वजह से लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है तो इसकी एक बड़ी वजह पेट्रोल और डीजल के आसमान छूते दाम भी हैं। गौरतलब है कि पेट्रोल का भाव जहां कई राज्यों में सौ रुपए प्रति लीटर पहुंच गया है, वहीं डीजल करीब अस्सी रुपए प्रति लीटर बिक रहा है। अब एसबीआइ के इकोनॉमिक रिसर्च डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर पेट्रोलियम उत्पादों को माल एवं सेवा कर यानी जीएसटी के दायरे में लाया जाए तो देश भर में पेट्रोल के भाव पचहत्तर रुपए और डीजल के भाव अड़सठ रुपए प्रति लीटर तक नीचे लाए जा सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पेट्रोलियम उत्पाद केंद्र और राज्यों के लिए राजस्व का एक प्रमुख स्रोत हैं, इसलिए सरकारें इसे जीएसटी के दायरे में लाने से हिचक रही हैं। लेकिन अगर सरकार इस ओर कदम बढ़ाती है तो इसका कोई बड़ा आर्थिक असर नहीं पड़ेगा। रिपोर्ट के मुताबिक इस पहलकदमी से केंद्र और राज्यों के राजस्व में जीडीपी के महज 0.4 फीसदी के बराबर की कमी आएगी। फिर केंद्र और राज्यों में कई तरह के कर और उप-कर जुड़ जाने से भी स्थिति जटिल होती है। सवाल है कि अगर सरकार देश में महंगाई की वजह से लोगों की परेशानी को लेकर फिक्रमंद है, तो इस साधारण बोझ को सह कर वह पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी लाने के उपाय क्यों नहीं कर सकती है! विचित्र यह है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर जब हालात चिंताजनक होने लगते हैं तो सरकार दलील देती है कि बाजार में यह उतार-चढ़ाव अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम पर निर्भर है। हालांकि दुनिया भर में पेट्रोलियम उत्पादों के भाव तय करने के लिए किसी देश में पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। शायद ही कभी ऐसा हुआ है जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में गिरावट का लाभ आम उपभोक्ताओं को मिल पाया। यह छिपी बात नहीं है कि क्रयशक्ति कम होने के चलते बाजार में आम जरूरत की वस्तुओं के दाम के आसमान छूने की स्थिति में लोग अपने उपभोग का स्तर कम कर देते हैं। जाहिर है, इससे अर्थव्यवस्था की गति भी प्रभावित होती है। हालांकि पेट्रोल और डीजल को पहले भी इस तर्क पर जीएसटी के दायरे में लाने की मांग की जाती रही है कि अगर देश में एक कानून को समान स्तर पर लागू करने की दुहाई दी जाती है तो तेल को इससे बाहर क्यों रखा गया है। लेकिन राजस्व में कमी की आशंका के चलते पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग पर अब तक गौर नहीं किया गया। अब एसबीआइ की ताजा रिपोर्ट के बाद उम्मीद है कि सरकार इस पर गंभीरता से विचार करेगी।


सौजन्य - जनसत्ता।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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