अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकार से असहमति का अर्थ राजद्रोह नहीं होता। यह फैसला अदालत ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ दायर एक मामले की सुनवाई करते हुए दिया है। याचिका में कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटाने पर फारूक ने जिस तरह पाकिस्तान और चीन से मदद की गुहार लगाई थी, वह राजद्रोह की श्रेणी में आता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को स्वाभाविक ही व्यापक दायरे में देखा जा रहा है। इसे एक तरह से सरकार को नसीहत भी माना जा रहा है। कुछ दिनों पहले जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि के मामले में सुनवाई करते हुए दिल्ली की एक निचली अदालत ने भी यही कहा था कि नागरिक सरकार की अंतरात्मा के रखवाले होते हैं और उन्हें उसके विरोध में बोलने का हक है। सरकार की नीतियों का विरोध देशद्रोह कतई नहीं माना जाना चाहिए। इसके पहले भी कई मामलों में विभिन्न अदालतें ऐसी टिप्पणियां कर चुकी हैं। बेशक ये टिप्पणियां किन्हीं खास मामलों के संदर्भ में की गई हों, पर वे सरकार और सरकारी तंत्र के लिए नसीहत के तौर पर ही दी गई हैं। दरअसल, पिछले कुछ सालों में सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर मुकदमे और उनकी गिरफ्तारियां बढ़ी हैं। ऐसे बहुत सारे लोगों को सबक सिखाने के मकसद से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और पुलिस उन पर शिकंजा कसने का प्रयास करती रही है। सोशल मीडिया के मंचों पर टिप्पणी करने, किसी मंच पर कोई चुटकुला सुनाने जैसे मामलों को भी देशद्रोह की श्रेणी में मान लिया जाता है। अगर कोई रिपोर्टर किसी ऐसी घटना पर बेबाक राय जाहिर करने का प्रयास करता है, जिससे सरकार की नाकामी उजागर होती हो, तो उसे भी राजद्रोही करार दे दिया जाता है। दिशा रवि का मामला तो सिर्फ यह था कि विदेशी जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग की एक ट्वीट में कुछ संपादन करके उसे दूसरे लोगों से साझा कर दिया था। चूंकि उस ट्वीट से सरकार को काफी किरकिरी झेलनी पड़ी थी, इसलिए उसने ग्रेटा के बजाय दिशा को निशाना बनाया और उस पर अलगाववादी संगठन का सहयोग करने और राष्ट्रद्रोह जैसे गंभीर आरोप लगा कर जेल भेज दिया गया था। ऐसी घटनाओं पर बार-बार लोगों में रोष उभरता रहा है। उनमें से अनेक मामलों में अदालतों ने अलग-अलग सुनवाई करते हुए पिछले दिनों कई लोगों को रिहा कर दिया। दरअसल, राजद्रोह या देशद्रोह से संबंधित कानून अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर शिकंजा कसने के मकसद से बनाए थे। इन कानूनों के जरिए उसने अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने का प्रयास किया था। मगर अब जब लोकतंत्र है, जिसमें असहमत स्वरों को भी सुनने का विधान है, अगर उन्हें राजद्रोह या देशद्रोह मान लिया जाएगा, तो फिर संवैधानिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। लोकतंत्र में लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और वे मिल कर सरकार बनाते हैं। इस तरह सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि नागरिकों की तरफ से उठने वाली विरोधी आवाजों को भी सुनेंगी। मगर यह पहली बार नहीं है, जब देखा जा रहा है कि सरकारों के पास चूंकि ताकत है, वे अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को किसी न किसी तरह दबाने का प्रयास करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि सरकार का मतलब देश नहीं होता। शायद इसे सरकारें समझने का प्रयास करेंगी।
सौजन्य - जनसत्ता।
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