सर्वोच्च न्यायालय ने ऋण स्थगन की अवधि बढ़ाने और ब्याज भुगतान को पूरी तरह माफ करने से इनकार करके बैंकिंग व्यवस्था और सरकार दोनों को बड़ी राहत दी है। इतने बड़े पैमाने पर ब्याज की माफी बैंकिंग तंत्र पर बहुत भारी पड़ती और उसके व्यापक वृहद आर्थिक प्रभाव होते। इससे पहले सरकार ने न्यायालय के समक्ष कहा था कि यदि उसे भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा महामारी के चलते घोषित छह माह के ऋण स्थगन की समूची अवधि का ब्याज माफ करने पर विचार करना पड़ा तो इसमें 6 लाख करोड़ रुपये की राशि गंवानी होगी। यदि बैंकों को यह बोझ उठाना पड़ता तो उनकी विशुद्ध संपत्ति का बड़ा हिस्सा इसी में चला जाता। ऐसे में अधिकांश बैंकों की हालत खस्ता हो जाती और उनके अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाता। गैर निष्पादित परिसंपत्ति यानी फंसे हुए कर्ज के वर्गीकरण पर लगी रोक को समाप्त करने से फंसे कर्ज में कुछ हद तक इजाफा होगा लेकिन इससे इस विषय पर लंबे समय से चली आ रही अनिश्चितता का अंत होगा।
इससे भी अहम बात यह है कि न्यायालय की भाषा और उसके तर्कों से भरोसा मजबूत होना चाहिए। उदाहरण के लिए उसने कहा कि वित्तीय और आर्थिक नीति के मसलों पर मशविरा देने का काम उसका नहीं है क्योंकि रिजर्व बैंक जैसे संस्थान इसमें पूरी तरह सक्षम हैं। यदि न्यायालय को लगता है कि आरबीआई के निर्देश अतार्किक हैं अथवा संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं तो वह उन्हें भी निरस्त कर सकता है। निर्णय में यह भी कहा गया कि अदालतें नीतिगत मसलों पर कार्यपालिका को सलाह नहीं दे सकतीं क्योंकि नीति बनाने का काम कार्यपालिका का ही है। ऋण स्थगन अवधि की ब्याज माफी के लिए न्यायालय ने कहा कि बैंकों को जमा पर ब्याज चुकाना होगा और महामारी के दौरान भी उनकी देनदारी भी बरकरार रही।
न्यायालय ने चक्रवृद्धि ब्याज पर अवश्य राहत दी। उसने तर्क दिया कि एक बार ऋण स्थगन किए जाने के बाद किस्त न चुकाए जाने को देनदारी में जानबूझकर चूक नहीं माना जा सकता। ऐसे में ब्याज पर ब्याज लेने या दंडस्वरूप ब्याज लेने का कोई अर्थ नहीं है। न्यायालय को इस बात की भी कोई उचित वजह नहीं मिली कि आखिर चक्रवृद्धि ब्याज संबंधी लाभ को केवल 2 करोड़ रुपये तक के ऋण तक सीमित क्यों रखा जाए? न्यायालय ने निर्देश दिया कि यदि बैंकों ने दंडस्वरूप अथवा चक्रवृद्धि ब्याज वसूल किया है तो उसे या तो वापस किया जाए या अगली किस्त में समायोजित किया जाए। कर्जदारों को राहत का असर बहुत मामूली होगा और उसे सरकार वहन करेगी।
रिजर्व बैंक ने कर्जदाताओं को इजाजत दी थी कि वे 1 मार्च से 31 मई के बीच की कर्ज की किस्तों का भुगतान के स्थगन को बढ़ा दें। कोशिश यह थी कि महामारी के दौरान कर्जदारों को राहत दी जा सके। आर्थिक गतिविधियां कमजोर होने के कारण ऋण स्थगन को 31 अगस्त तक बढ़ा दिया गया था। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर हुईं जिनमें कहा गया कि स्थगन अवधि को बढ़ाया जाए और इस दौरान लगने वाले ब्याज को माफ किया जाए, विभिन्न क्षेत्रों को राहत दी जाए और ऋण स्थगन अवधि के चक्रवृद्धि ब्याज को माफ किया जाए। आरबीआई के अनुमान के मुताबिक आधार परिदृश्य में भी बैंकिंग तंत्र का सकल फंसा हुआ कर्ज सितंबर तक 13.5 फीसदी हो सकता है। बैंकरों की दलील है कि महामारी का असर अनुमान से कमतर रहा है। वास्तविक तस्वीर अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही के बाद ही सामने आएगी। यह निर्णय भले ही कुछ देर से आया है लेकिन यह आर्थिक हालात सामान्य करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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