गर पता होता लॉकडाउन का हश्र (हिन्दुस्तान)

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार 


आयकर और प्रत्यक्ष कर की वसूली सरकार की उम्मीद से बेहतर हो गई है। फरवरी में लगातार तीसरे महीने जीएसटी की वसूली भी 1.10 लाख करोड़ रुपये से ऊपर रही। डीजल की बिक्री कोरोना काल से पहले के स्तर पर पहुंच चुकी है और एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान बढ़ा रही है। लेकिन इन खुशखबरियों के साथ ही कुछ परेशान करने वाली खबरें भी आ रही हैं। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले तीन महीनों में सबसे ऊपर आ गया है, तो थोक महंगाई का आंकड़ा 27 महीने की नई ऊंचाई पर है। अभी ये दोनों ही आंकड़े रिजर्व बैंक की चिंता का कारण नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने खतरे का निशान पार नहीं किया है। लेकिन डर है कि जल्द ही ऐसा हो सकता है, क्योंकि तेल का दाम बढ़ता जा रहा है। न सिर्फ कच्चा तेल, बल्कि खाने का तेल और  विदेश से आने वाली दालें भी महंगी हो रही हैं। 

और यह सब तब, जब देश की आधी से ज्यादा आबादी लॉकडाउन के असर से निकलने की कोशिश में ही है। बहुत बड़ी आबादी के लिए यह कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है। सरकार ने अगस्त में पीएफ दफ्तर के आंकडे़ दिखाए थे और कहा था कि 6.55 लाख नए लोगों को रोजगार मिला है। लेकिन पिछले सोमवार को श्रम मंत्री ने संसद में बताया कि गए साल अप्रैल से दिसंबर के बीच 71 लाख से ज्यादा पीएफ खाते बंद हुए हैं। यही नहीं, 1.25 करोड़ से ज्यादा लोगों ने इसी दौरान अपने पीएफ खाते से आंशिक रकम निकाली। रोजगार का हाल जानने के लिए कोई पक्का तरीका है नहीं, इसीलिए सरकार ने अब इस काम के लिए पांच तरह के सर्वे करने का फैसला किया है। इस तरह के सर्वेक्षण की जरूरत शायद नहीं पड़ती, अगर कोरोना का संकट न आया होता और पूरे भारत में लॉकडाउन का एलान न हुआ होता। दुनिया की सबसे बड़ी तालाबंदी करते वक्त अगर सरकारों को अंदाजा होता कि इसका क्या असर होने जा रहा है, तो शायद वे कुछ और फैसला करतीं। लेकिन अब पीछे जाकर फैसला तो पलटा नहीं जा सकता। जो होना था, हो चुका है।

लॉकडाउन का अर्थ था, देश की सारी आर्थिक गतिविधियों पर अचानक ब्रेक लगना। उसी का असर था कि अगले तीन महीने में अर्थव्यवस्था में करीब 24 प्रतिशत की गिरावट और उसके बाद की तिमाही में फिर 7.5 फीसदी की गिरावट के साथ भारत बहुत लंबे समय के बाद मंदी की चपेट में आ गया। अच्छी बात यह रही कि साल की तीसरी तिमाही में ही गिरावट थम गई, और तब से अब तक जश्न का माहौल बनाने की तमाम कोशिशें चल रही हैं। लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ। कुछ ऐसे आंकडे़ अब आ रहे हैं, जिनको पढ़कर फिर याद आने लगी हैं वे डरावनी खबरें, जो लॉकडाउन की शुरुआत में आ रही थीं। लाखों लोग बडे़ शहरों को छोड़कर निकल पड़े थे। सरकारों के रोकने के बावजूद, पुलिस के डंडों से बेखौफ, सरकार की ट्रेनें और बसें बंद होने से भी बेफिक्र। यही वक्त था, जिसके बारे में बाद में सीएमआईई ने बताया कि सिर्फ अप्रैल महीने में भारत में 12 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई थी। हालांकि, कुछ ही महीनों में इनमें से करीब 11 करोड़ लोगों को कोई न कोई दूसरा काम मिल गया, पर पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोगों पर खतरा बढ़ा और उनकी नौकरियां बडे़ पैमाने पर जाने लगीं। जिनकी बचीं, वहां भी तनख्वाहें खासा कम हो गईं। तब सीएमआईई के एमडी ने कहा कि यह लंबे दौर के लिए खतरनाक संकेत है। आज अपने आसपास देखिए, तो समझ में आता है कि वह किस खतरे की बात कर रहे थे। बैंकों ने रिजर्व बैंक को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वर्किंग कैपिटल के लिए कर्ज पर ब्याज चुकाने से मार्च के अंत तक जो छूट दी गई थी, उसका समय बढ़ा दिया जाए। साफ है, बैंकों को डर है कि उनके ग्राहक अभी कर्ज चुकाने की हालत में नहीं आए हैं और दबाव डाला गया, तो कर्ज एनपीए हो सकते हैं। भारत सरकार के खुद के आंकडे़ दिखा रहे हैं कि रिटेल, यानी छोटे लोन के कारोबार में निजी बैंक सबसे ज्यादा दबाव महसूस कर रहे हैं। इन्होंने इस श्रेणी में जितने कर्ज बांट रखे हैं, उनमें किस्त न भरने वाले ग्राहकों की गिनती 50 फीसदी से 380 फीसदी तक बढ़ चुकी है, मार्च से दिसंबर के बीच। इससे भी खतरनाक नजारा है उच्च शिक्षा के लिए दिए गए कर्जों का। सरकारी बैंकों ने 31 दिसंबर को 10 प्रतिशत से ज्यादा ऐसे कर्जों को एनपीए, यानी डूबने वाला कर्ज मान लिया है। इस साल होम लोन, कार लोन या रिटेल लोन के मुकाबले सबसे खराब हाल एजुकेशन लोन का ही है। कॉलेजों का हाल देख लीजिए या नई नौकरियों का, इनमें जल्दी सुधार के हालात भी नहीं दिखते। इस हाहाकार के बीच आपने यह खबर जरूर देखी होगी कि पिछले साल भारत में 55 नए अरबपति पैदा हो गए। लेकिन इसके साथ यह भी जानना जरूरी है कि इस साल देश में मध्यम वर्ग की आबादी में 3.25 करोड़ लोगों की गिरावट आई है। इसमें रोजाना 10 से 50 डॉलर तक कमाने वाले लोग शामिल हैं। कम कमाई करने वालों, यानी रोज दो से सात डॉलर तक कमाने वालों की गिनती में भी 3.5 करोड़ की गिरावट आई है। अभी किसी का हाल बेहतर नहीं है, क्योंकि कुछ बेहद अमीर लोगों को छोड़ दें, तो अमीरों की सूची भी थोड़ी छोटी ही हुई है। और यही फिक्र की बात है कि देश में गरीबों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है, इसमें 7.5 करोड़ नए लोग जुड़ गए हैं।यह अपने आप में एक बेहद गंभीर आर्थिक संकट का इशारा है। फिर जिस अंदाज में देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना के नए मामले आ रहे हैं, उससे आशंका यह खड़ी हो रही है कि किसी तरह पटरी पर लौटती आर्थिक गतिविधि को कहीं एक और बड़ा झटका तो नहीं लग जाएगा। लॉकडाउन की पहली बरसी पर हम सबको यही मनाना चाहिए कि लोग दो गज की दूरी, मास्क, सैनिटाइजेशन और टीके का सहारा लेकर किसी तरह इस हाल से आगे निकलने का रास्ता बनाएं। वरना बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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