प्रयाग शुक्ल, कवि और कला मर्मज्ञ
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में, जब सामान्य जीवन थम गया, तब सभी को यही लगा कि जिंदगी कटेगी कैसे? फिर धीरे-धीरे यह भी लगने लगा कि अब इसी के साथ रहना है। यह अच्छा है, जीवन में हर बार योजनाएं नहीं बनानी पड़तीं, कई चीजें अपने आप होती हैं। जीवन अपनी गति से चलता रहता है और किसी न किसी किनारे लगता है। लॉकडाउन के गाढ़े समय में मैंने बहुत से लोगों को बागवानी करते देखा, जो पहले पौधों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे। कलाकार-लेखक मित्रों से बात हुई, तो कुछ ने यहां तक कहा कि हमें कोई फर्क नहीं पड़ा। चित्रकारों ने कहा कि हम तो अपने स्टूडियो में रहते थे, किसी ने परेशान नहीं किया। पढ़ने-लिखने वाले बहुत से लोगों ने लॉकडाउन काल का अच्छा सदुपयोग कर लिया।
खुद मेरे साथ यह हुआ कि मैंने धीरे-धीरे कलर पेंसिल से कुछ चित्र बनाने शुरू किए, तो इस उम्र में भी कला का एक नया सिलसिला आगे बढ़ा। कला व लेखन क्षेत्र में बहुत सी अच्छी चीजें हुई हैं, परस्पर आदान-प्रदान भी पहले की तुलना में बढ़ा है। किताबों और संवादों के ऑनलाइन विस्तार-प्रसार ने भी हमें बहुत संभाला है। हां, थियेटर, सिनेमा की दुनिया को ज्यादा चोट लगी है। ये ऐसी कलाएं हैं, जो समूह में संभव होती हैं। लेखकों कलाकारों का काम तो इसलिए भी चल गया कि वह स्वयं लिखने-बनाने वाले हैं, लेकिन फिल्म कलाकार, संगीतकार क्या करते? इन्हें हुए नुकसान की भरपाई में बहुत वक्त लगेगा। लॉकडाउन के सन्नाटे में मुझे खुद भय तो नहीं लगा, लेकिन थोड़ी-बहुर्त ंचता जरूर हुई, दुकानें वगैरह जब बंद हो गई थीं, कहां से जरूरी सामान आएगा? कौन लाएगा? लेकिन यह ऐसा समय था, जब भले पड़ोसियों से भी खूब मदद मिली। हम जैसे अनेक स्वतंत्र लेखकों को यह भी चिंता हुई कि लॉकडाउन बहुत लंबा चला, तो खर्च कैसे चलेगा? देश में करोड़ों लोगों के मन में यह चिंता रही है। ऐसी चिंताओं ने ही लोगों को भविष्य के बारे में अलग ढंग से सोचने के लिए विवश किया। लॉकडाउन काल की एक बड़ी उपलब्धि यह रही है कि बहुत से लोगों ने घर का महत्व समझा। हमने देखा, हम सबके लिए घर एक नई तरह से प्रगट हो रहा है। उस दृश्य ने खासतौर पर विचलित किया, जब हमने देखा कि लाखों लोग पैदल घर लौट रहे हैं। घर का एक नया ही अर्थ खुला, जिसे हम भूल से गए थे। अज्ञेय जी की पंक्ति याद आई-घर लौटने के लिए होता है। कितनी सुंदर बात उन्होंने कही थी। घर एक ठिकाना है। आप सात समुंदर पार चले जाते हैं, लेकिन अपना ठिकाना नहीं भूलते, आप हर बार वहीं लौटते हैं। हरिवंश राय बच्चन की कविता भी बार-बार याद आई- दिन जल्दी-जल्दी ढलता है / बच्चे प्रत्याशा में होंगे,/ नीड़ों से झांक रहे होंगे / यह ध्यान परों में चिड़ियों के/ भरता कितनी चंचलता है! / दिन जल्दी-जल्दी ढलता है! रोज कमाने-खाने वालों की पीड़ा तो हम अब शायद ही भूल पाएंगे। बड़ी चिंता हुई कि सरकार कैसे इतने लोगों को संभालेगी? काम-धंधे गंवाने वालों का क्या होगा? लेकिन जीवन के बारे में यह बहुत सुंदर पक्ष है कि आप बहुत देर तक हंस नहीं सकते, तो बहुत देर तक रो भी नहीं सकते। बहुत देर तक आप भय में नहीं रह सकते। बहुत देर तक आप निश्चिंत नहीं रह सकते। यही जीवन संतुलन सदियों से चला आ रहा है। इस दौर के जो अनुभव हैं, सबके लिए वरदान जैसे हैं। जीवन में कोई न कोई गति मिलती है अच्छी हो या खराब। गति को जब आप पहचानते हैं, तो जीवन से सीखते हैं। लॉकडाउन में लोगों ने छोटी-छोटी चीजों पर गौर करना शुरू किया। जैसे मैं कबूतरों के लिए रोज पानी रखता था, कभी-कभी उनकी तस्वीरें भी खींचता था और दूसरों को भेजा करता था। छोटी-छोटी खुशियां थीं, आज एक कली आ गई, आज एक पत्ती निकली। जितनी भी जगह थी, उसमें मैंने बागवानी शुरू की। पौधों पर नए सिरे से ध्यान देना शुरू किया। उसी दौरान एक माली को फोन किया, तो वह बहुत खुश हुआ कि किसी ने तो उसका हाल पूछा। काम तो उसका भी ठप था, लोग उसे बुलाने से बचने लगे थे। अपनों से दूर रहने और कुछ लोगों से हमेशा के लिए बिछड़ जाने का दुख भी बहुत चुभा। कोरोना से ठीक होने के बाद मेरी बहन भी दुनिया से चली गई। ऐसी रुलाने वाली घटनाएं न जाने कितने परिवार में हुई होंगी। वह मेरी सगी बहन थी, हमने इतना समय साथ बिताया था, लेकिन उसके अंतिम संस्कार में मैं कहां शामिल हो पाया। फोन पर सूचना मिल गई कि चार लोग आ गए हैं और संस्कार कर रहे हैं। ऐसी यादें आपके मन में छप जाती हैं, जो आपको अक्सर याद आएंगी और दुखी करेंगी। वह ऐसा दौर था, हम किससे शिकायत करते, सभी परेशानी में थे। ये जो सुख-दुख के पलडे़ हैं, ये ऐसे ही उतरते-चढ़ते रहते हैं, यह जरूरी है कि हम खुद को हर स्थिति के लिए तैयार रखें। भयभीत न हों।
गांधी की आत्मकथा का इन दिनों अनुवाद कर रहा हूं। उनसे जुड़ा एक प्रसंग आपसे जरूर साझा करना चाहूंगा। गांधीजी फैसला करते हैं कि वह गोखले से मिलने जाएंगे। वह दक्षिण अफ्रीका से लंदन आते हैं। लंदन आते ही उन्हें पता चलता है कि गोखले तो पेरिस में फंस गए हैं, विश्व युद्ध शुरू हो चुका है, पर गांधीजी लिखते हैं कि उन दिनों लंदन देखने लायक था। लोगों में युद्ध का भय नहीं था, लोग सेना में जाने की तैयारियां कर रहे थे। संकट के जो दिन होते हैं, मनुष्य को बहुत कुछ सिखाते भी हैं। हमें अपनी गति से चलते रहना है। हजारी प्रसाद द्विवेदी की कविता मेरे लिए जीवन का मंत्र है- कोई रोते रहे/ कोई खोते रहे/ अपना रथ पर हम जोते रहे। इसका मतलब यह नहीं कि हम यह न देखें कि लोगों के साथ क्या हो रहा है, परिवार में क्या हो रहा है? पर हां, मुझे अपना रथ नहीं रुकने देना है। लॉकडाउन के दौर की अच्छाइयों को कभी भूलना नहीं चाहिए। बड़ी संख्या में सेवाभावी लोगों ने जरूरतमंदों की मदद की, भूखे लोगों को भोजन देने में, लाचार लोगों को घर पहुंचाने के लिए अनेक लोग बहुत साहस और प्रेम के साथ सामने आए हैं। गांधीजी ने सिखाया था कि भेद मत करो, अपने और दूसरे में। अपने-पराये में हम अक्सर बहुत भेद करते हैं। लॉकडाउन के दौरान यह भेद कुछ दूर हुआ है, उसे अभी और दूर करना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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