आत्म-दर्शन : संयम और मंजिल (पत्रिका)

आचार्य विद्या सागर

संयम का एक अर्थ इन्द्रिय और मन पर लगाम लगाना भी है और असंयम का अर्थ बेलगाम होना है। बिना ब्रेक की गाड़ी और बिना लगाम का घोड़ा जैसे अपनी मंजिल पर नहीं पहुंचता, उसी प्रकार असंयम के साथ जीवन बिताने वाले को मंजिल नहीं मिलती। एक नदी मंजिल तक तभी पहुंच सकती है, सागर तक तभी जा सकती है, जब उसके दोनों तट मजबूत हों। यदि तट भंग हो जाए, तो नदी वहीं विलीन हो जाएगी।

इसी प्रकार संयम रूपी तटों के माध्यम से हम अपने जीवन की धारा को मंजिल तक ले जाने में सक्षम होते हैं। संयमी व्यक्ति ही कर्म के उदय रूपी थपेड़े झेल पाता है। कर्म के वेग और बोझ को सहने की क्षमता असंयमी के पास नहीं है। वह तो जब चाहे तब जैसा कर्म का उदय आया, वैसा कर लेता है। खाने की इच्छा हुई और खाने लगे। देखने की इच्छा हो गई तो देख लिया। सुनने की इच्छा हुई तो सुन लिया। वास्तव में देखा जाए, तो इन्द्रियां कुछ नहीं चाहतीं। वे तो खिड़कियों के समान हैं। भीतर बैठा हुआ मन ही उन खिड़कियों के माध्यम से काम करता रहता है। जो उस मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है, वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है। संयमी विचार करता है कि इन्द्रियों के विषयों की ओर जाना आत्मा का स्वभाव नहीं है। मेरा/आत्मा का स्वभाव तो मात्र अपनी ओर देखना और अपने को जानना है। संयमी ही ऐसा विचार कर पाता है और संयमी ही आत्म पुरुषार्थ के बल पर अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेता है।

सौजन्य - पत्रिका।
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