सुधांशु रंजन (वरिष्ठ टीवी पत्रकार, स्तंभकार एवं लेखक)
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका पता इससे चलता है कि वहां न्यायपालिका एवं प्रेस कितने स्वतंत्र हंै। यही वजह है कि अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में अभिव्यक्ति की आजादी एक मौलिक अधिकार है। अमरीकी संविधान में भी प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है। मूल संविधान में ऐसा नहीं था, किन्तु संविधान लागू होने के तुरंत बाद प्रथम संशोधन के जरिए ऐसा किया गया। भारतीय संविधान का जब निर्माण हो रहा था, तो संविधान सभा में यह मद्दा आया था कि अमरीकी संविधान की तरह भारत में भी प्रेस की स्वाधीनता को एक मौलिक अधिकार बनाया जाए, किन्तु संविधान निर्माताओं का ऐसा विचार था कि हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया जा रहा है, इसलिए पत्रकारों को अलग से कोई अधिकार देने की आवश्यकता नहीं है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बनाया गया, किन्तु 19(2) में इसे सीमित करने के आधार भी बताए गए। यानी यह बताया गया कि किन आधारों पर इस अधिकार में कटौती की जा सकती है। ये आधार थे झूठी निन्दा, मानहानि, अदालत की अवमानना या वैसी कोई बात जिससे शालीनता या नैतिकता को ठेस लगती है या जिससे राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ती है या जो देश को तोड़ती है। संविधान लागू होने के तुरंत बाद 1951 में ही प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा इसमें नए आधार जोड़े गए और फिर 1963 में 16वें संशोधन के जरिए उसे विस्तारित किया गया। इस तरह भारत की संप्रभुता एवं एकता, दूसरे देशों से दोस्ताना सम्बंध तथा हिंसा भड़काने के आधार पर भी अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित किया जा सकता है। यह थोड़ा हैरतअंगेज है कि जिस संविधान सभा ने यह अधिकार दिया, उसी ने उसमें कटौती करने के आधार को बढ़ाया। अभी कुल आठ आधारों पर इस स्वतंत्रता में कटौती की जा सकती है।
पिछले 50-60 सालों में गंगा, यमुना एवं कावेरी में काफी पानी बह चुका है। गत दो दशकों में इंटरनेट तथा सोशल मीडिया के विस्तार ने परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। इस नई तकनीकी क्रांति के कारण जितना सही खबरों का प्रचार हो रहा है, उससे कहीं ज्यादा झूठी खबरों का प्रसार हो रहा है। यानी प्रचार तथा दुष्प्रचार के बीच की खाई लगभग खत्म हो चुकी है। अनुच्छेद 19 के तहत सभी झूठे बयानों एवं समाचारों पर रोक नहीं है और न ही उसके लिए दण्डात्मक कार्रवाई है। समस्या तब होती है जब इसके पीछे शरारत या दुर्भावना हो। यानी भूलवश या सही-गलत का फर्क ना समझ पाने के कारण अनजाने में कोई गलती हो जाए तो वह अपराध नहीं है।
सोशल मीडिया में कोई गेटकीपर नहीं होता है। इसलिए कोई जो चाहे वह अपलोड कर देता है। इसीलिए सन् 2000 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम बनाया गया, जिसमें 2008 में संशोधन किया गया और संशोधित कानून 2009 में लागू हुआ। गत 25 फरवरी को केन्द्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (अंतरिम दिशानिर्देश एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 जारी किया। इसमें ऑनलाइन न्यूज मीडिया सहित सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकार के पास कई शक्तियां हैं। हाल की कुछ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया के दुरुपयोग से उभरी चुनौतियों पर विचार करना समीचीन होगा। हाल में कुछ घटनाओं पर फैलाए गए झूठ पर काफी विवाद हुआ है और कई महत्त्वपूर्ण हस्तियों एवं खबरनवीसों पर भारतीय दंडविधान एवं भारतीय प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधानों के तहत मुकदमे भी चलाए गए हैं, जिनमें देशद्रोह भी शामिल है।
अभी सबसे ज्यादा विवाद देशद्रोह के मामले को लेकर है, क्योंकि कई लोगों पर ऐसे मुकदमे चलाए गए हैं। एक आरोप विभिन्न सरकारों पर यह लगता रहा है कि औपनिवेशिक काल के प्रावधान (भारतीय दण्ड विधान की धारा 124-5) का दुरुपयोग कर असहमति को दबाया जा रहा है। कुछ अन्य कानूनों के दुरुपयोग के भी आरोप लगते रहे हैं। ये हैं द्ग अवैध गतिविधियां निरोधक अधिनियम (यूएपीए) 1967, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980, जम्मू-कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम 1978 तथा धन शोधन निरोधक अधिनियम 2002। वैसे तो शायद ही कोई ऐसा कानून है, जिसका दुरुपयोग न हुआ हो या होता न हो, किन्तु सरकार यदि दुरुपयोग करे तो यह खतरनाक हो सकता है। ऐसे मामलों में अंतिम निर्णय अदालत को देना होता है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार व्यापक है, जिसमें सरकार की कटुतम आलोचना का अधिकार है, किन्तु देशद्रोह का अधिकार नहीं है। इसके बावजूद हर आलोचना को देशद्रोह बताकर मुकदमा चलाना कि सी भी तरह उचित नहीं माना जा सकता।
सौजन्य - पत्रिका।
0 comments:
Post a Comment