निजी क्षेत्र की नौकरियां में आरक्षण कानूनी रूप से न्यायसंगत नहीं है, राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है क्षेत्रीयता की भावना (दैनिक जागरण)

बेरोजगारी एक समस्या है लेकिन इसका समाधान निजी क्षेत्र की नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए भारी-भरकम आरक्षण नहीं है। यह अपेक्षा तो उचित है कि उद्योग-धंधे अपनी नौकरियों में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दें लेकिन इस अपेक्षा को कानूनी शक्ल देने के फैसले प्रतिकूल नतीजे दे सकते हैं।


यह शुभ संकेत नहीं कि झारखंड सरकार भी निजी क्षेत्र की नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की तैयारी कर रही है। अभी हाल में हरियाणा सरकार ने भी इसी तरह का कदम उठाया है। इसके तहत निजी क्षेत्र की कंपनियों को 50 हजार रुपये तक की मासिक वेतन वाली नौकरियों में से 75 प्रतिशत राज्य के लोगों को देनी होंगी। इस तरह की पहल नई नहीं है। कई और राज्य भी इसी तरह के कदम उठा चुके हैं। कहीं निजी क्षेत्र पर 70 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को देने की शर्त लगाई गई है तो कहीं 75 प्रतिशत। विडंबना यह है कि ऐसे कदम कानूनी रूप से न्यायसंगत न माने जाने के बाद भी उठाए जा रहे हैं। आंध्र सरकार इसी तरह के अपने फैसले को इसलिए नहीं लागू कर सकी, क्योंकि उसे उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई। अन्य राज्यों के ऐसे ही फैसलों का भविष्य जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि हमारा संविधान पंथ, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी तरह के भेदभाव की अनुमति नहीं देता।


भले ही निजी क्षेत्र की नौकरियां स्थानीय लोगों को देने वाले फैसलों के जरिये जनता को यह संदेश देने की कोशिश की जाती हो कि सरकार उनके हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन ऐसे कदम कुल मिलाकर निजी क्षेत्र को हतोत्साहित ही करते हैं। इससे भी खराब बात यह होती है कि वे पिछले दरवाजे से इंस्पेक्टर राज की वापसी का कारण भी बनते हैं। इसके नतीजे में नए उद्योग-धंधे स्थापित करने वाले भी हतोत्साहित होते हैं और वे किसी अन्य राज्य में संभावनाएं तलाशते हैं। ऐसे कदम क्षेत्रीयता की भावना को हवा देकर जाने-अनजाने राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने का भी काम करते हैं। आज जब एक देश-एक राशन कार्ड, एक देश-एक मानक जैसे विचारों को अमल में लाने की पहल की जा रही है, तब यह ठीक नहीं कि कुछ राज्य देश की जनता के बीच नई दीवारें खड़ी करने का काम करें। जब निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, तब इसका औचित्य नहीं कि राज्य सरकारें इसकी जांच-पड़ताल करने का तंत्र बनाती फिरें कि किस कंपनी-कारखाने में कितने लोग काम कर रहे हैं और उनका वेतन, मूल निवास स्थान आदि क्या है? यह सही है कि बेरोजगारी एक समस्या है, लेकिन इसका समाधान निजी क्षेत्र की नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए भारी-भरकम आरक्षण नहीं है। यह अपेक्षा तो उचित है कि उद्योग-धंधे अपनी नौकरियों में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दें, लेकिन यह ध्यान रहे तो बेहतर कि इस अपेक्षा को कानूनी शक्ल देने के फैसले प्रतिकूल नतीजे दे सकते हैं।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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