अर्थव्यवस्था पर विमर्श को बॉन्ड बाजार जैसों ने अगवा किया (बिजनेस स्टैंडर्ड)

टीसीए श्रीनिवास-राघवन  

सरकार को लगता है कि सुधारों के बारे में उसका पक्ष न तो ठीक से सुना जा रहा है और न ही उसकी ठीक से चर्चा हो रही है। लेकिन इसके लिए दोष किसका है? कई लोग कहेंगे कि सरकार प्रभावी तरीके से संवाद नहीं कर पाई है। लेकिन यह आंशिक रूप से ही सही है।

सच यह है कि पिछले 15 वर्षों में भारत की आर्थिक नीति की कहानी को बॉन्ड बाजार जैसे तत्त्वों ने अगवा कर लिया है। मुझे नहीं पता है कि ऐसा क्यों हुआ है लेकिन यह भारत में आर्थिक मसलों पर होने वाले विमर्श में आया एक असाधारण एवं अप्रिय बदलाव है।


अगर सब नहीं तो बहुत कुछ अब वित्त के ही बारे में होता है। मानो असली क्षेत्रों का वजूद ही नहीं रह गया है। वित्त के भीतर भी ज्यादा चर्चा बॉन्ड बाजार एवं मौद्रिक नीति की ही होती है। किसी को भी बैंकिंग, स्टॉक मार्केट और वित्तीय क्षेत्र के अन्य पहलुओं मसलन विदेशी विनिमय बाजार की फिक्र नहीं है। ऐसा नहीं कह सकते हैं कि इन मुद्दों पर एकदम चर्चा ही नहीं होती है। लेकिन यह चर्चा इतनी सतही, छिटपुट एवं जानकारी के अभाव वाली होती है कि उसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता है।


यह इस तथ्य के बावजूद हुआ है कि भारत में बॉन्ड बाजार छोटा एवं अविकसित होने के साथ ही अर्थव्यवस्था के लिहाज से काफी हद तक अप्रासंगिक भी है। फिर भी हमें कारोबार जगत की खबरें देने वाले समाचारपत्रों एवं टेलीविजन चैनलों में केवल इसके बारे में ही पढऩे-देखने को मिलता है।


उत्पादकता एवं वृद्धि की मुख्य वाहक तकनीक भी अब पिछली सीट पर आ गई है। जब इसकी चर्चा होती है तो वह मोबाइल फोन और अब क्रिप्टोकरेंसी के ही संदर्भ में सीमित होती है। वह चर्चा या तो बेदम होती है या फिर जाहिलियत से भरपूर होती है। इस तरह इसके बारे में चर्चा करने वाले अधिकतर लोगों को क्रिप्टोकरेंसी एवं ब्लॉकचेन के बीच का फर्क भी नहीं मालूम होता है। इसका नतीजा बेतुका ही होता है।


असली कहानी


सरकार की नीति पर होने वाली चर्चा की अगुआई करने वाले लोग उत्पाद एवं श्रम बाजार को नजरअंदाज करते हैं, विदेश व्यापार की तो बात ही अलग है। ऐसे विमर्श इसलिए होते हैं कि उनके विषय सिद्धांतों के बारे में होते हैं, उनसे जुड़े गुणदोषों के बारे में नहीं।


ऐसी चर्चाओं को पढऩे या सुनने से आप असली क्षेत्र में बदलाव के तरीके के बारे में कम ही सोचेंगे। फिर भी सच से आगे तो कुछ नहीं हो सकता है।


अगर आप अंजाम दिए जा चुके सभी कामों की जानकारी जुटाने की मशक्कत करते हैं जिसके लिए आपको वित्त मंत्रालय की वेबसाइट से कहीं दूर देखने की जरूरत ही नहीं है, तो आपको पता चलेगा कि आर्थिक विमर्श की हालत कितनी शोचनीय है।


असली क्षेत्रों में बीते 10-12 वर्षों में बड़े पैमाने पर एवं लगातार सुधार किए गए हैं। खासकर पिछले चार वर्षों में तो यह तेजी जबरदस्त रही है। कोरोनावायरस की वजह से इसका काफी कुछ पिछले एक साल में हुआ है।


इन सुधारों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक गतिविधियों की नलियों को गतिरोधों से मुक्त करना रहा है ताकि आर्थिक गतिविधि अधिक कारगर हो सके। बुनियादी तौर पर सरकार इन नलियों में बने गतिरोधों की पहचान करने और उन्हें हटाने का ही काम करती रही है। सरकार का हर कदम अपने-आप में छोटा एवं अनाकस्मिक होता है। लेकिन इन सबको एक साथ रखकर देखें तो उनका असर बेहद अचंभित करने वाला रहा है। और इस संभावना में ही इस समस्या की जड़ है। सुधारों की समग्रता को आत्मसात कर पाना और उन्हें एक साथ रखकर एक अकेली सुसंगत कहानी में पिरोना लगभग नामुमकिन है। एक तरह से यह एक ऐसी बड़ी जिग्सा पहेली है जिसके सभी खांचों को कोई भी सही ढंग से नहीं बिठा सकता है।


इसका नतीजा यह हुआ है कि अर्थव्यवस्था के विश्लेषण में जुटे लोगों (जिनमें से अधिकतर लोग मेरे परिचित हैं) इसके एक पहलू यानी मौद्रिक नीति पर ध्यान केंद्रित करना कहीं अधिक सरल लगा है।


राव की तरकीब


इस संदर्भ में पी वी नरसिंह राव सरकार के समय अपनाई गई संवाद  की पद्धति खासी मददगार हो सकती है। राव सरकार ने तमाम उद्योग एवं वाणिज्य संगठनों को सहयोजित कर लिया था और उन्हें हर हफ्ते किसी-न-किसी मुद्दे पर चर्चा के लिए कार्यक्रम करने को कहा जाता था। ये संगठन कई रिपोर्ट तैयार करते थे जिन्हें हर महीने कोई मंत्री जारी करता था।


नरेंद्र मोदी सरकार भी अगर चाहती है कि अर्थव्यवस्था पर होने वाली चर्चाएं मौद्रिक नीति, मुद्रास्फीति एवं क्रिप्टोकरेंसी से आगे बढ़े तो उसे भी राव सरकार की यह तरकीब अपनाने के बारे में सोचना चाहिए।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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