दिल्ली में अधूरे सपने की मौत या नई जंग का मुकाम (बिजनेस स्टैंडर्ड)

आदिति फडणीस 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की दिल्ली इकाई के लिए हंगामा बस होने ही वाला है। दिल्ली को राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले दिवंगत नेता मदन लाल खुराना की आत्मा शायद अपनी ही पार्टी के केंद्रीय नेताओं के हाथों दिल्ली सरकार की शक्तियों में कटौती होते देखकर बेचैन हो रही होगी। भाजपा के स्थानीय नेता सुधांशु मित्तल कहते हैं, 'हम लोगों ने ही दिल्ली को राज्य का दर्जा दिया था। लेकिन हर कदम का वक्त और जगह मुकर्रर होती है।'


इस बात से इनकार कर पाना मुश्किल है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (एनसीटीडी) संशोधन अधिनियम संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद भाजपा के गले में बंधा एक सियासी छल्ला साबित होने वाला है। दिल्ली की निर्वाचित सरकार की शक्तियों में कटौती और दिल्ली राज्य की स्वायत्तता सीमित करने वाला यह विधेयक आने वाले समय में भाजपा के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। गनीमत बस यह है कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने में अभी काफी वक्त है। हालांकि पार्टी तमाम आशंकाओं के साथ 2022 में होने वाले नगर निगम चुनावों की तैयारी में लग गई है। अगर हाल ही में हुए नगर निगम उपचुनावों को पैमाना मानें तो दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) का आकर्षण बरकरार है। मार्च के शुरू में हुए निगम उपचुनावों में आप ने पांच में से चार सीटों पर जीत हासिल की है। इनमें से एक उम्मीदवार बहुजन समाज पार्टी छोड़कर आप में शामिल हुआ था और फिर से रोहिणी-सी सीट से चुना गया है। वहीं आप ने कल्याणपुरी और त्रिलोकपुरी की अपनी सीट बरकरार रखी हैं। पार्टी ने शालीमार बाग (उत्तर) सीट भाजपा से छीन ली है। यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष आदेश गुप्ता कहते हैं, ' शालीमार बाग सीट को गंवाना हमारे लिए आत्म-मंथन का विषय है। जल्द ही हम कमियों को दूर कर लेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि भाजपा अगले साल होने वाले तीनों नगर निगमों के चुनावों में जीत हासिल करेगी।'


लेकिन भाजपा के लिए यह काम उतना आसान नहीं होने जा रहा है। खासकर एनसीटीडी विधेयक के जरिये दिल्ली सरकार के अधिकारों में कटौती करने के बाद तो और भी मुश्किल होगा।


फिलहाल केंद्र एवं दिल्ली सरकार के संबंध राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम 1991 के जरिये परिभाषित होते हैं। इस अधिनियम की धारा 44 शासन के कामकाज से संबंधित है। केंद्र कहता है कि इस कानून के तहत कोई भी ऐसी ढांचागत व्यवस्था नहीं है जो इस धारा के तहत नियमों का समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सके। इस कानून में इस पर भी कोई स्पष्टता नहीं है कि किन प्रस्तावों या मामलों में राज्य सरकार को आदेश जारी करने के लिए उप-राज्यपाल से विचार-विमर्श करना जरूरी है। फिर दिल्ली सरकार बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय का वह आदेश भी है जिसमें कहा गया है कि उप-राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह एवं मदद के जरिये काम करने के लिए बाध्य है और किसी भी रूप में वह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकता है। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला दिल्ली की आप सरकार के पक्ष में आया था।


संविधान के अनुच्छेद 239-एए का उपबंध 4 भी मामले को उलझाने का काम करता है। यह उपबंध दिल्ली के संदर्भ में कुछ खास प्रावधानों का उल्लेख करता है। इसमें कहा गया है कि उप-राज्यपाल एवं दिल्ली सरकार के बीच मतभेद पैदा होने की स्थिति में उप-राज्यपाल मामले को राष्ट्रपति की सलाह के लिए भेज सकता है और उस सलाह को बाध्यकारी माना जाएगा।


लेकिन संसद में हाल ही में पारित नए विधेयक में दिल्ली के उप-राज्यपाल को ही सरकार बताया गया है। यह परिभाषा दिल्ली में विधानसभा द्वारा पारित किसी भी कानून पर लागू होगी।


दूसरा, संशोधित अधिनियम की धारा 3 में कहा गया है कि उप-राज्यपाल की शक्तियों के बाहर रखी हुई कोई भी चीज उसी में सीमित मानी जाएगी। इसी तरह कानून बनाने के लिए दिल्ली विधानसभा को मिली शक्तियों के बाहर का कोई भी विषय अब उप-राज्यपाल में निहित होगा। नए कानून के जरिये 1991 के अधिनियम की धारा 33 में भी संशोधन किया गया है जो प्रक्रियागत नियमों का जिक्र करती है। इस बदलाव का नतीजा यह होगा कि दिल्ली विधानसभा अब प्रशासनिक कामकाज से जुड़े मामलों पर विचार करने या प्रशासन के संदर्भ में जांच के लिए अब खुद को या अपनी समितियों को सशक्त करने वाले नियम नहीं बना सकती है। इससे भी अहम यह है कि नए कानून के प्रावधान पश्चवर्ती प्रभाव से लागू होंगे। यानी विधानसभा की तमाम मौजूदा समितियां एक झटके में खत्म हो जाएंगी।


भाजपा अंदरखाने कहती है कि उसे दिल्ली सरकार के अधिकारों में कटौती का विचार पाकिस्तान के हालात को देखकर आया था। नवाज शरीफ के सत्ता में रहते समय इमरान खान की पार्टी समेत कई दलों के कार्यकर्ताओं ने राजधानी इस्लामाबाद के एक हिस्से पर नियंत्रण कर लिया था। भाजपा के एक नेता कहते हैं, 'हमें लगा कि अगर दिल्ली में ऐसा ही हो जाए तो क्या होगा? अरविंद केजरीवाल और उनके अराजकतावादी सहयोगी अगर अपनी अराजक राजनीति से देश की राजधानी को अस्थिर करने लगेंगे तो क्या होगा?' भाजपा यह याद दिलाने की कोशिश कर रही है कि कई देशों में राजधानी वाले शहर का शासन संघीय सरकार के पास है। भाजपा का आधिकारिक रुख यही है कि इस बदलाव के जरिये दिल्ली की शासकीय स्थिति में मौजूद अस्पष्टता दूर करने की कोशिश की गई है।


साफ है कि नया कानून भाजपा समेत सभी दलों को प्रभावित करेगा। एक नेता कहते हैं, 'दलीय हित का एक वक्त होता है। और फिर राष्ट्रीय हित का समय आता है। हमने पार्टी के हित पर राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता दी है।' निश्चित है कि आम आदमी पार्टी इस मुद्दे को शांत नहीं होने देगी। लेकिन नई शक्तियों से लैस होने के बाद उप-राज्यपाल भी चुप नहीं बैठेंगे। ऐसी स्थिति में आज नहीं तो कल एक जंग छिडऩी तय है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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