कोरोना से नहीं डरतीं किताबें (प्रभात खबर)

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

दिल्ली में ठंड के दिनों में घने कोहरे के बीच प्रगति मैदान का विश्व पुस्तक मेला बहुप्रतिक्षित रहता है. कोरोना आपदा के चलते भले ही वह पुस्तक-कुंभ न लग पाया हो, लेकिन पुस्तकों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कृतसंकल्प राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) ने देश-दुनिया के पुस्तक प्रेमियों के घर तक विश्व पुस्तक मेले को पहुंचा कर दुनिया के सबसे बड़े वर्चुअल पुस्तक मेले का आयोजन कर दिया.



गत पांच से नौ मार्च तक चले नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के पहले वर्चुअल संस्करण ने आगंतुकों, खरीदारों और साहित्यिक आयेाजनों का विश्व-कीर्तिमान स्थापित कर दिया है. भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि कोई भी आपदा देश की सृजनात्मकता, वैचारिकी और ज्ञान-प्रसार में आड़े नहीं आ सकती.



ऐसा पहला अनुभव होने के बावजूद न आगंतुकों का उत्साह कम हुआ और न ही प्रकाशकों का. इस पुस्तक मेले में 135 से अधिक भारतीय और 15 से अधिक विदेशी प्रकाशकों ने सहभागिता दर्ज करायी. एक अनजान व अदृश्य जीवाणु ने जब दुनिया की चहलकदमी रोक दी, फिर भी कोई भी भय इंसान की सृजनात्मकता, विचारशीलता और उसे शब्दो में पिरो कर प्रस्तुत करने की क्षमता पर अंकुश नहीं लगा पाया.


इस अजीब परिवेश ने न केवल लिखने के नये विषय दिये, बल्कि इसमें लेखक-पाठक की दूरियां कम हुईं, तकनीक से मुहल्ले व कस्बों के विमर्श अंतरराष्ट्रीय हो गये. शुरूआत में जब मुद्रण संस्थान ठप रहे, तब सारी दुनिया की तरह पुस्तकों की दुनिया में भी कुछ निराशा-अंदेशा व्याप्त था. लेकिन घर में बंद समाज को त्रासदी के पहले हफ्ते में ही भान हो गया कि पुस्तकें ऐसा माध्यम हैं, जो सामाजिक दूरी को ध्यान में रखते हुए घरों में अवसाद से मुक्ति दिलाने में महती भूमिका निभाती हैं और ज्ञान का प्रसार भी करती हैं. भय भरे माहौल में लॉकडाउन में सकारात्मक सोच के साथ पठन-पाठन से लोगों को जोड़ने के लिए कई अभिनव प्रयोग किये गये.


प्रगति मैदान के पुस्तक मेले की लगभग तीन दशक से चल रहे अनवरत सिलसिले के टूटने पर निराश होना लाजिमी थी, लेकिन वर्चुअल पुस्तक मेले ने इस कमी को काफी कुछ पूरा किया. कुछ नहीं से कुछ होना भला है, परंतु छोटे प्रकाशकों, दूरस्थ अंचल के लेखकों व पाठकों के लिए तो प्रगति मैदान की भीड़ में किताबों के कुंभ में गोते लगाना ही पुस्तक मेला कहलाता है. कंप्यूटर संचालित इस आधुनिक व्यवस्था को भले ही नाम मेला का दिया गया हो, लेकिन आम लोगों के लिए तो सीमित तंत्र है.


पुस्तकों की संख्या कम होती है, भुगतान को लेकर भी दिक्कतें हैं. असल में मैदान में लगनेवाला मेला पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव होता है, जिसमें गीत-संगीत, आलोचना, मनुहार, मिलन, असहमतियां और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी होती है.


बीते एक साल में लेखकों और प्रकाशकों ने यह भांप लिया कि कोरोना के चलते लोगों की पठन अभिरूचि, जीवन शैली, अर्थतंत्र आदि में आमूल-चूल बदलाव होंगे. एनबीटी ने अपनी कई सौ लोकप्रिय पुस्तकों को निशुल्क पढ़ने के लिए वेबसाइट पर डाल दिया, तो राजकमल प्रकाशन ने पाठक के घर तक पुस्तकें पहुंचाने की योजना शुरू कर दी. कई अन्य प्रकाशक भी डिजिटल प्लेटफॉर्म को प्राथमिकता देने लगे.


हालांकि अभी ईबुक अधिक लोकप्रिय नहीं हुआ है, लेकिन बच्चों में ऑडियो बुक्स का प्रचलन बढ़ा है. बुद्धिजीवी वर्ग को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस महामारी ने हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव के लिए मजबूर किया है और इससे पठन अभिरूचि भी अछूती नहीं हैं. लोगों ने पहले फेसबुक जैसे निशुल्क प्लेटफॉर्म पर रचना पाठ, गोष्ठी, लेखक से मुलाकात और रचनाओं की ऑडियो-वीडियो प्रस्तुति प्रारंभ की और फिर जूम, गूगल, जैसे कई नये मंच आ गये. मोबाइल या कंप्यूटर पर लेखक को सुनने या सवाल करने का मोह घर के वे सदस्य भी नहीं छोड़ पाये, जो अभी तक पठन-पाठन से दूरी बनाये रखते थे.


नवंबर में दिल्ली में फेडरेशन आफ इंडियन पब्लिशर्स ने तीन दिन का एक वर्चुअल पुस्तक मेला किया था, जिसे विश्व का सबसे बड़ा वर्चुअल बुक फेयर कहा गया. दिसंबर में इंडिया इंटरनेशनल साइंस कांग्रेस में भी पुस्तक मेला के लिए एक स्थान था. तीस दिसंबर से दस जनवरी तक गुवाहाटी पुस्तक मेला हुआ और जहां हर दिन पचास हजार पुस्तक प्रेमियों ने पहुंच कर जता दिया कि अपनी पठन-पिपासा के लिए वे कोरोना वायरस से डर नहीं रहे.


लखनऊ में भी पुस्तक मेला हुआ और कई जगह प्रदर्शनी भी लग रही हैं. ऐसा नहीं है कि कोरोना संकट के साथ आये बदलावों से प्रकाशन व लेखन में सभी कुछ अच्छा ही हुआ है. नयी तकनीक ने भले ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, लेकिन मुद्रित पुस्तकें आज भी विचारों के आदान-प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम हैं. वे जरूरी शिक्षा और साक्षरता का एकमात्र साधन भी हैं. हमारी बड़ी आबादी अभी भी डिजिटल माध्यमों से गंभीरता से परिचित नहीं हैं.


हमारे प्रकाशन उद्योग की विकास दर पिछले साल तक बीस प्रतिशत सालाना रही, जो अब थम गयी है. लेकिन विषम स्थिति में भी बोधि प्रकाशन (जयपुर) जैसे संस्थान उम्मीद की लौ बरकरार रखते हुए सौ रूपये में दस पुस्तकों के सेट मुहैया करा रहे हैं. यह एक बानगी है कि किताबें हर विषम स्थिति का मुकाबला करते हुए किसी भी तकनीकी से जुड़ कर ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित रखती हैं.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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