आज भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है उतनी ही उसे भी भारत की है। अमेरिकी नीति-नियंताओं को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि यदि भारत अमेरिका का सहयोगी बनने को तैयार है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह उसके पिछलग्गू की तरह काम करे।
जो बाइडन के अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी संभालने के बाद उनके रक्षा मंत्री लॉयड आस्टिन का भारत आगमन दोनों देशों के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों को नए सिरे से रेखांकित करता है। इसके पहले दोनों देशों के संबंधों को तब मजबूती मिली थी, जब अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति की पहल पर क्वाड देशों के शासनाध्यक्षों की पहली बैठक हुई थी। नई दिल्ली दौरे पर अमेरिकी रक्षा मंत्री ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से भी बात की। इस बातचीत को उन्होंने बहुत व्यापक और लाभकारी बताया। ऐसा ही कुछ राजनाथ सिंह ने भी कहा। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस बातचीत के दौरान वैसे कोई मसले नहीं उठे, जिनके बारे में तबसे चर्चा हो रही थी, जबसे बाइडन ने राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली थी। अमेरिकी रक्षा मंत्री रूसी मिसाइल सिस्टम एस-400 की खरीद का जिक्र करने से जिस तरह बचे, उससे यही इंगित होता है कि अमेरिकी प्रशासन भारत की रक्षा जरूरतों को समझ रहा है और वह अपने कुछ उन सांसदों की सुनने के लिए तैयार नहीं है, जो भारत विरोधी रवैया अपनाए हुए हैं। इन सांसदों को न केवल भारत की ओर से रूस से मिसाइल सिस्टम खरीदे जाने पर आपत्ति है, बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि बाइडन प्रशासन कश्मीर पर कुछ अलग रवैया अपनाए और भारत में नागरिक अधिकारों की भी जांच-परख करे। पता नहीं, अमेरिका की सोच क्या है, लेकिन यह तय है कि भारत इन मसलों पर किसी का दखल स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगा।
अमेरिकी नीति-नियंताओं को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि यदि भारत अमेरिका का सहयोगी बनने को तैयार है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह उसके पिछलग्गू की तरह काम करे। तेजी से बदलते और आगे बढ़ते भारत के लिए यह संभव नहीं और किसी को ऐसी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। अमेरिका को इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि भारत किसी खेमे का हिस्सा बनने का हामी नहीं है। वह बहुध्रुवीय विश्व का पक्षधर है और अपने हिसाब से अपने मित्रों का चयन करने की स्वतंत्रता अपने लिए भी चाहता है और दूसरों के लिए भी। वास्तव में मोदी के नेतृत्व वाले भारत की विदेश नीति की यही विशेषता है। अमेरिका को भारत को इस तरह की शर्तों से बांधने से बचना होगा कि वह इस या उस देश से अपने संबंध रखे या फिर न रखे। इससे ही दोनों देश मिलकर अपनी और साथ ही वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे। यह भी ध्यान रहे कि आज भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है, उतनी ही उसे भी भारत की है।
सौजन्य - दैनिक जागरण।
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