रवि एस श्रीवास्तव, निदेशक, सेंटर फॉर इम्प्लॉयमेंट स्टडीज
इन दिनों हम दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन की पहली बरसी मना रहे हैं। यह देशव्यापी तालाबंदी अलहदा थी, क्योंकि महज चार घंटे की सूचना पर इसे लागू किया गया था। देश भर में फंसे करोड़ों लोगों, यात्रियों, छात्र-छात्राओं और प्रवासियों की सुध नहीं ली गई थी। आज भी, लॉकडाउन की जो पहली छवि हमारी आंखों के सामने आती है, वह बेबस मजदूरों की ही है, जो पैदल अपने-अपने घरों की ओर रवाना हो गए थे। फिर चाहे वे पुरुष हों, महिला या बच्चे, जिसे जो भी साधन मिला, उसी से वह विदा हो गया। इस घर वापसी में कई लोग तो मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गए। यह निश्चय ही देश का सबसे बड़ा शहरी पलायन था। यह कुछ ऐसा था, जिसके बारे में न तो नीति-नियंता अनुमान लगा सके थे, और न ही आम जनता।
लॉकडाउन और इसकी वजह से हुए शहरी पलायन ने सभी प्रवासियों को समान रूप से प्रभावित नहीं किया। इसने उन लोगों को ज्यादा चोट पहुंचाई, जो देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में सबसे निचले दर्जे पर हैं। इनकी कमाई कम है और रोजगार अनिश्चित, इसलिए जीवित रहने के लिए ये कभी ग्रामीण, तो कभी शहरी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनते रहते हैं। इनमें भी सबसे अनिश्चित जीवन मौसमी प्रवासियों का होता है, जो अन्य राज्यों में निर्माण-कार्यों, ईंट भट्ठों, खदानों आदि में काम करने के लिए लंबी दूरी तय करते हैं। जब लॉकडाउन की घोषणा हुई, तब इन प्रवासी कामगारों की नौकरी खत्म हो गई, कार्यस्थल पर तैनात मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, ठेकेदारों ने मजदूरी देने से इनकार कर दिया, और किराये पर रहने वाले कामगार मकान-मालिक का किराया चुकाने के लिए चिंतित हो उठे। ऊपर से वायरस के खौफ ने उनकी असुरक्षा और बढ़ा दी। ये सब उनके पलायन का कारण बने। जनगणना और राष्ट्रीय सर्वेक्षणों के आधार पर मेरा यही अनुमान है कि ऐसे गरीब श्रमिकों की संख्या लगभग 13 करोड़ थी, जिनमें से 5.5 करोड़ दूसरे राज्यों में काम कर रहे थे, जबकि तीन करोड़ अंतर-राज्यीय मौसमी प्रवासी थे। सरकार का मानना है कि लगभग 1.1 करोड़ प्रवासी घर लौटे, जो सटीक नहीं जान पड़ता है, क्योंकि कई बार पैदल चलकर या स्वयं के साधन से मजदूर गृह राज्य को लौटे थे। शुरुआत में सरकारों और सार्वजनिक परिवहन तंत्र में समन्वय का अभाव दिखा, जबकि महाकुंभ जैसे विशाल आयोजनों का प्रबंधन ये बखूबी कर लेते हैं। यहां तक कि इन मजदूरों के यात्रा भाडे़ का भुगतान कौन करेगा, इसका जवाब भी नहीं था। मगर, बाद में केंद्र सरकार ने जन-वितरण प्रणाली और मनरेगा का विस्तार किया, और कुछ संवेदनशील राज्य सरकारों ने खास कदम भी उठाए, जिससे गरीब प्रवासियों व उनके परिवारों को कुछ राहत मिल सकी।
प्रवासी संकट सामने आने के बाद पहली बार नीति-निर्माताओं के साथ-साथ शहरी और औद्योगिक भारत को यह एहसास हुआ कि सहायक सेवाओं और विकास में इन मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनकी अनुपस्थिति से श्रम-बल में भारी अंतर आया। ऐसे में, संवेदनशील नागरिकों का यह तर्क वाजिब था कि प्रवासी श्रमिक केवल सस्ते श्रम और सेवाएं देने के माध्यम नहीं हैं, बल्कि उन्हें भी सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है, उनके काम को पूरा महत्व मिलना चाहिए और आवास, बुनियादी सुविधाएं व स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच सुनिश्चित होनी चाहिए।
अब एक साल के बाद यह देखने का समय है कि इस सबक पर सभी भागीदार पक्षों ने गौर किया अथवा नहीं? चूंकि शहरी और औद्योगिक विकास की प्रक्रियाओं में प्रवासी मजदूर ग्रामीण क्षेत्रों से वापस लौटने लगे हैं, तो क्या अब उनका कामकाजी जीवन अधिक टिकाऊ, सुरक्षित और महफूज रहेगा? इन प्रश्नों के जवाब अब तक मिले-जुले रहे हैं। जब मजदूरों की कमी थी, तब कंपनियों ने प्रवासियों के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाए और उन्हें प्लेन तक से वापस बुलाया। लेकिन जैसे-जैसे उनकी आवक बढ़ती गई, नौकरी की अनिश्चितता और कम आय मजदूरों पर भारी पड़ने लगी है। नियोक्ताओं के साथ न तो रोजगार की शर्तों में सुधार हुआ, और न ही मजदूरी में। आलम यह है कि उद्योग जगत संक्रमण के दूसरे चरण का सामना करने के लिए भी तैयार नहीं दिख रहा। एक बार फिर केंद्र सरकार ने प्रवासी श्रमिकों के लिए कानूनी व सामाजिक सुरक्षा के लिए राज्य सरकारों को एडवाइजरी जारी की है। हाल के श्रम कानूनों में, संगठित क्षेत्र में अंतरराज्यीय मजदूरों को भी पंजीकृत करने और निर्माण-कार्यों में लगे प्रवासी श्रमिकों को संगठित क्षेत्र का लाभ देने के प्रावधान किए गए हैं। एक स्पष्ट समझ बनी है कि प्रवासी श्रमिकों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता और नीतिगत लाभ उन्हें मुहैया कराने ही होंगे। सबसे आशाजनक पहल तो नीति आयोग ने की है। वह संबंधित मंत्रालयों, राज्य सरकारों और नागरिक संगठनों को शामिल करके प्रवासी मजदूरों के लिए एक नीतिगत मसौदा तैयार कर रहा है। अगर इसको स्वीकृति मिल जाती है, तो उपेक्षित मजदूरों के इस विशाल समूह के लिए देश की यह पहली नीति होगी। इसमें प्रवासियों की गरिमा को मान्यता दी गई है और कामगार व मनुष्य के रूप में उनके अधिकारों के सम्मान की वकालत की गई है। उम्मीद की यह किरण निस्संदेह प्रवासी संकट के सबसे स्याह दौर में उभरी है, मगर अब भी कई बुनियादी मसलों पर ध्यान देने की जरूरत है। सामाजिक सुरक्षा हर मानव का अधिकार है और मूल निवास-स्थान में भेदभाव किए बिना न्यूनतम स्तर की सामाजिक सुरक्षा हर प्रवासी श्रमिक को मिलनी चाहिए। प्रवासी कामगारों को जो चिंता सबसे अधिक खाए जा रही है, वह है रोजगार की अनिश्चितता। श्रम कानूनों में हालिया बदलावों ने ठेकेदार आधारित रोजगार और पूर्णत: अस्थाई नौकरी का विस्तार करके इस अनिश्चितता को और बढ़ा दिया है। फिर, प्रवासी बनने की मूल वजह गहरा क्षेत्रीय असंतुलन है, जिस पर अब भी ध्यान नहीं दिया गया है। लिहाजा, लॉकडाउन के इस एक वर्ष के बाद प्रवासी मजदूरों से जुड़े मुद्दों पर कहीं ज्यादा गंभीरता दिखाने की जरूरत है। प्रवासी व गैर-प्रवासियों के लिए एक समावेशी और न्यायसंगत समाज बनाने के लिए हमें अब भी बहुत कुछ करना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुतान।
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