अजय साहनी
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों के 22 जवानों की शहादत दुखद है और इसकी जितनी निंदा की जाए, वह कम है। ऐसे हमले बार-बार होते रहते हैं। हालांकि इस हमले के ज्यादा ब्योरे अभी सामने नहीं आए हैं, पर इससे पहले जो ऐसे हमले हुए हैं, उनमें अक्सर यह देखा गया है कि आमतौर पर सुरक्षा बलों की कोई न कोई भारी चूक रहती है। अभी जो इस हमले की तस्वीरें दिखी हैं, उसमें नजर आता है कि बहुत से शहीद हुए जवानों के शव एक ही जगह पड़े थे। इसका मतलब है कि वे बहुत पास-पास चल रहे थे। यह भी रिपोर्ट आ रही है कि ये दो पहाड़ी के बीच से गुजर रहे थे और ऊपर से इन पर मशीनगन, ग्रेनेड लांचर, आदि, से हमला किया गया। इससे लगता है कि इन्हें जाल में फंसाकर मारा गया है।
ऑपरेशन से संबंधित सुरक्षा बलों की मानक प्रक्रिया के जो दिशा-निर्देश होते हैं, अगर उनका पालन किया जाता, तो इतने ज्यादा जवान नहीं मारे जाते। ऑपरेशन से संबंधित सुरक्षा बलों की जो मानक प्रक्रिया होती है, उसमें अग्रिम दस्ता भेजकर इलाके का सर्वेक्षण किया जाता है, उसके बाद ऑपरेशन को भी बिखर कर अंजाम दिया जाता है। सुरक्षा बल इकट्ठा होकर नहीं चलते हैं, ऐसे में अगर कहीं हमला भी होता है, तो कम नुकसान होता है और उतनी देर में शेष सुरक्षा बल जवाबी कार्रवाई कर हावी हो जाते हैं। माओवादी तो हर वक्त इस ताक में रहते हैं कि सुरक्षा बल चूक करें और जब सुरक्षा बल कोई बड़ी चूक करते हैं, तो नुकसान भी बड़ा होता है।
इसमें यह भी मालूम हो रहा है कि सुरक्षा बलों को खुफिया जानकारी मिली थी कि नक्सल कमांडर माडवी हिड़मा भी उस इलाके में मौजूद था, जिसके खिलाफ सुरक्षा बल सर्च ऑपरेशन करने निकले थे। यह भी हो सकता है कि यह खुफिया जानकारी नक्सलियों ने ही इनके पास भिजवाई हो, अपने जाल में फंसाने के लिए, क्योंकि नक्सली बहुत तैयारी में थे और जहां यह हमला हुआ है, वह जगह सीआरपीएफ के कैंप से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। बिना जांच के अभी यह कह देना कि खुफिया विभाग की चूक नहीं थी, यह एक बयानबाजी भर है, जिसका कोई महत्व नहीं है। जांच के बाद ही असलियत का पता चलेगा कि इंटेलिजेंस की क्वालिटी क्या थी, और फोर्स से कहां चूक हुई।
जहां यह हमला हुआ है, उस क्षेत्र में सुरक्षा बल रोज पेट्रोलिंग पर निकलते हैं। इसलिए यह भी नहीं कह सकते कि वहां की भौगोलिक स्थिति से अनजान होने के कारण सुरक्षा बल इसका शिकार हुए। मुझे लगता है कि सुरक्षा बलों की रणनीति में गड़बड़ी हुई है और मानक प्रक्रियाओं पर ठीक से अमल नहीं किया गया होगा। अगर आप दो पहाड़ी के बीच से निकल रहे हैं, तो बुनियादी सावधानी तो बरतनी चाहिए थी। अगर उस इलाके का सर्वे किया जाता और पहाड़ी के ऊपर एक-दो जवान जाते, तो उनके साथ मुठभेड़ होती या वे लौटकर खबर देते। ऐसे में एकाध जवान ही मारा जाता। इसके अलावा मार्चिंग का पैटर्न होता है, जिसमें जवान एक-दूसरे से दूरी बनाकर चलते हैं। फासले पर चलने से भी कम से कम जवान मारे जाते, बाकी लोग सतर्क होकर जवाबी कार्रवाई करते।
जहां तक माओवादियों की ताकत या कमजोरी देखने की बात है, तो उसके लिए ट्रेंड देखने की आवश्यकता है। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक, ट्रेंड दिखा रहा है कि 2010 में नक्सली हमलों में 1179 लोग मारे गए थे, लेकिन 2020 में 239 आदमी मारे गए। जाहिर है, हिंसा की घटनाएं कम हो गईं। एक जमाने में 20 प्रदेशों के 223 जिलों में माओवादी फैले थे, उसमें से 66 ऐसे जिले थे, जिन्हें सर्वाधिक प्रभावित जिला बताया जा रहा था। आज हमारे आंकड़ों के मुताबिक, कुल 9 प्रदेशों में 41 जिले हैं, जहां माओवादी फैले हुए हैं और उसमें से दो या तीन जिले ही सर्वाधिक प्रभावित रह गए हैं। पूरे के पूरे इलाके खाली हो गए हैं। पश्चिम बंगाल में पिछले चार साल से एक भी आदमी नहीं मारा गया। बिहार, आंध्र प्रदेश का आप नाम नहीं सुनते हैं, इस वक्त सिर्फ छत्तीसगढ़, ओडिशा का थोड़ा-सा हिस्सा और थोड़ा-सा हिस्सा झारखंड में बाकी रह गया है।
और छत्तीसगढ़ के भी मात्र तीन जिले हैं, जो माओवाद से ज्यादा प्रभावित हैं। माओवादी कमजोर जरूर हुए हैं, पर यह नहीं कहा जा सकता कि माओवादी खत्म हो गए हैं। यह सभी मानते हैं कि जिस इलाके में यह हादसा हुआ है और जहां सुरक्षा बल ऑपरेशन चला रहे हैं, वह माओवादियों का आखिरी किला है। अगर आप आंकड़े देखेंगे, तो पता चलेगा कि ज्यादातर तो नक्सली ही मारे जा रहे हैं, कुछेक सुरक्षा बल भी मारे जाते हैं और कुछ नागरिकों को नक्सली पुलिस का मुखबिर बताकर मार देते हैं।
नक्सली ऐसे हमले अपनी ताकत और अपना वर्चस्व दिखाने के लिए करते हैं। इससे नक्सलियों के बचे-खुचे कैडरों का मनोबल बढ़ता है और वे नए रंगरूटों की भर्ती करते हैं। पहले नक्सली बारूदी सुरंग बिछाकर हमले करते थे, लेकिन इस हादसे में आमने-सामने की लड़ाई हुई दिखती है। इसकी वजह है कि सुरक्षा बलों की गतिविधियां उस क्षेत्र में बढ़ी हैं, जिस कारण माओवादियों को बारूदी सुरंग बिछाने का मौका नहीं मिल पाता और वे आमने-सामने की लड़ाई के लिए विवश होते हैं। इस मामले में उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से सुरक्षा बलों को फंसाकर आमने सामने की लड़ाई की, वरना वे आमने-सामने की लड़ाई से भी बचते फिरते हैं। कभी पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है, लेकिन आज ऐसा नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह सवाल तो है कि माओवाद की समस्या से कैसे निपटा जाए।
किसी भी हिंसक आंदोलन को रोकने और प्रभावित इलाकों पर वर्चस्व पाने के लिए बलों का प्रयोग करना जरूरी होता है। पर इस तरह नहीं, जैसे इस मामले में जंगल में 2,000 जवानों को लड़ने के लिए भेज दिया गया और वे माओवादियों के जाल में फंस गए। कई तरीके अपनाए जा सकते हैं। ड्रोन के इस्तेमाल से इलाके का सर्वेक्षण हो सकता है। विद्रोही गुट के नेतृत्व को धीरे-धीरे खत्म किया गया है, और आज कुछ ही कमांडर बच रहे हैं। इस तरह, जो-जो इलाके कब्जे में आते जाएं, वहां सरकार एवं सरकारी योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करना चाहिए। सबसे अंत में विद्रोही गुटों के साथ बातचीत का रास्ता निकालना चाहिए – लेकिन यह तब हो, जब वे सुलह करने के लिए तैयार हो जाएं। तभी इस समस्या का निदान संभव है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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