फिर लगी आग, धधकते जंगल से आखिर कैसे निपटें (अमर उजाला)

रोहित कौशिक 

उत्तराखंड के जंगल एक बार फिर धधक रहे हैं। इस राज्य में एक अक्तूबर, 2020 से लेकर चार अप्रैल 2021 की सुबह तक जंगलों में आग लगने की 989 घटनाएं हो चुकी हैं। इन घटनाओं में 1297.43 हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में स्थित बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में भी भीषण आग लग गई थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि कभी प्राकृतिक कारणों से जंगलों में आग लगती है, तो कभी अपने निहित स्वार्थों के कारण जानबूझकर जंगलों में आग लगा दी जाती है। इस वर्ष फरवरी और मार्च का महीना औसत से ज्यादा गर्म रहा। इसलिए उत्तराखंड के जंगलों में भी आग लगने की आशंकाएं पहले ही बढ़ गई थी। कुछ समय पहले भी जंगलों में लगी आग से उत्तराखंड की जैवविविधता एवं पर्यावरण को काफी हानि हुई थी।



दरअसल जंगलों की आग से न केवल प्रकृति झुलसती है, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारे व्यवहार पर भी सवाल खड़ा होता है। गर्मियों के मौसम में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के जंगलों में आग लगने की घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। जंगलों में लगी आग से जान-माल के साथ-साथ पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। पेड़-पौधों के साथ-साथ  जीव-जन्तुओं की विभिन्न प्रजातियां जलकर राख हो जाती हैं। जंगलों में विभिन्न पेड़-पौधे और जीव-जन्तु मिलकर समृद्ध जैवविविधता की रचना करते हैं। पहाड़ों की यह समृद्ध जैवविविधता ही मैदानों के मौसम पर अपना प्रभाव डालती हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ऐसी घटनाओं के इतिहास को देखते हुए भी कोई ठोस योजना नहीं बनाई जाती है। एक अध्ययन के अनुसार, पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और समुद्र तटीय क्षेत्रों में जंगलों में आग लगने की समस्या बढ़ती जा रही हैं।



इस आग से लोगों का स्वास्थ्य, पर्यटन, अर्थव्यवस्था और परिवहन उद्योग गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। पूर्व एशिया में तो आग की बारंबारता, उसका पैमाना, उससे होने वाली क्षति और आग बुझाने में होने वाला खर्च सभी कुछ बढ़ा है। जंगल में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि के पीछे ज्यादा समय तक सूखा पड़ने, मौसम में बदलाव, बढ़ते प्रदूषण जैसे बहुत से कारक हैं। गौरतलब है कि दक्षिण एशिया में आग से नष्ट होने वाले 90 फीसदी जंगल भारत के हैं। पहाड़ों पर चीड़ के वृक्ष आग जल्दी पकड़ते हैं। कई बार वनमाफिया अपने स्वार्थ के लिए वनविभाग के कर्मचारियों के साथ मिलकर जंगलों में आग लगा देते हैं। यह विडंबना ही है कि पहाड़ों के जंगल हमारे लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं। 

 

जंगलों में यदि आग विकराल रूप धारण कर लेती है, तो उसे बुझाना आसान नहीं होता है। कई बार जंगल की आग के प्रति स्थानीय लोग भी उदासीन रहते हैं। दरअसल हमारे देश में ऐसी आग बुझाने की न तो कोई उन्नत तकनीक है और न ही कोई स्पष्ट कार्ययोजना। विदेशों में जंगल की आग बुझाने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य होता है। पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने जंगलों की आग पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि पर्यावरण मंत्रालय और अन्य प्राधिकरण वन क्षेत्र में आग लगने की घटना को हल्के में लेते हैं। जब भी ऐसी घटनाएं घटती हैं, तो किसी ठोस नीति की आवश्यकता महसूस की जाती है। लेकिन बाद में सब कुछ भुला दिया जाता है। 


जंगलों में आग लगने से पर्यावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे तापमान में वृद्धि होने की आशंका रहती है। पिछले दिनों विश्व बैंक ने चेतावनी दी थी कि यदि तापमान वृद्धि पर समय रहते काबू नहीं पाया गया, तो दुनिया से गरीबी कभी खत्म नहीं होगी। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से बांग्लादेश, मिस्र, वियतनाम और अफ्रीका के तटवर्ती क्षेत्रों में खाद्यान्न उत्पादन को तगड़ा झटका लगेगा, जबकि दुनिया के अन्य हिस्सों में सूखा कृषि उपज के लिए भारी तबाही मचाएगा। इससे दुनिया में कुपोषण के मामलों में वृद्धि होगी। इसके साथ ही उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तूफान और चक्रवातों का प्रकोप बढ़ेगा। इसलिए अब समय आ गया है कि हम जंगलों की आग से निपटने के लिए ठोस योजनाएं बनाएं।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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