चीन और ईरान के बीच बीते शनिवार को हुआ 25 वर्षीय समझौता न केवल इस पूरे इलाके की भू-राजनीति को बल्कि दीर्घकालिक अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को भी बहुत गहराई से प्रभावित करने वाला है। समझौते के मुताबिक ईरान में चीन अगले 25 वर्षों में 40,000 करोड़ डॉलर का निवेश करने वाला है। बदले में उसे ईरान से सस्ती कीमत पर भारी मात्रा में तेल की सप्लाई मिलती रहेगी। ध्यान रहे, ईरान दुनिया का चौथा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। विश्व के कुल तेल भंडार का 10 फीसदी उसके पास है। ईरान और चीन दोनों अभी अलग-अलग स्तरों पर अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में लगाए गए प्रतिबंधों के चलते ईरान अपना तेल नहीं बेच पा रहा है, हालांकि राष्ट्रपति जो बाइडेन के पदभार ग्रहण करने के बाद इन प्रतिबंधों के शिथिल होने की संभावना बढ़ी है। दोनों पक्षों में इस पर बातचीत भी चल रही है, लेकिन अभी तक सहमति नहीं बनी है। अमेरिका प्रतिबंध उठाए जाने से पहले ईरान से अपनी कुछ शर्तें मनवाना चाहता है जबकि ईरान का कहना है कि पहले प्रतिबंध उठाए जाएं तभी बाकी मुद्दों पर विचार किया जा सकता है।
इस बीच समझौते पर दस्तखत होने से कुछ ही दिन पहले चीन और रूस, दोनों ने अमेरिका से आग्रह किया कि वह जितनी जल्दी हो सके ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध बिना शर्त वापस ले। जाहिर है, चीन के साथ समझौते के बाद ईरान और अमेरिका में प्रतिबंध हटाने की प्रक्रिया को लेकर सहमति बनना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है। बहरहाल, इस समझौते का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक रणनीतिक गोलबंदी का है। चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान और तुर्की का आकार लेता हुआ गठबंधन वैसे तो अमेरिका के खिलाफ है, लेकिन मौजूदा समीकरणों को देखते हुए भारत के भी कुछ अहम हित इससे प्रभावित हो सकते हैं। खासकर इसलिए भी कि पिछले कुछ समय से अमेरिका और भारत की बढ़ती नजदीकी ने रूस जैसे मित्र देश को आशंकित कर दिया है। दूसरी बात यह कि चीन अगर अगले 25 वर्षों तक ईरान में टेक्नॉलजी, ट्रांसपोर्ट, डिफेंस आदि क्षेत्रों में भारी निवेश करने वाला है तो इसका मतलब यह हुआ कि ईरान की उस पर निर्भरता बढ़ेगी और आने वाले दौर में वह चीन के एक विश्वस्त सहयोगी के रूप में उभरेगा। उसके माध्यम से चीन न केवल पश्चिम एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास करेगा बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया में भारत के लिए मौजूद अवसरों को कम करके कश्मीर में भारत की मुश्किलें बढ़ाएगा। ईरान के चाबहार पोर्ट और उसे फीड देने वाली परिवहन व्यवस्था को विकसित करने में भारत अपनी काफी पूंजी लगा चुका है। देखना होगा कि चीन-ईरान समझौते का कोई विपरीत प्रभाव इसपर न पड़े। कुल मिलाकर यह समझौता भारतीय राजनय के लिए कई मोर्चों पर कठिन चुनौतियां लेकर आया है।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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