कोरोना संकट के दौर में प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी द्वारा अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में बांग्लादेश को चुनना दोनों देशों के बीच क्षेत्रीय और वैश्विक संबंधों के महत्व को दर्शाता है। निस्संदेह इस यात्रा के जहां कूटनीतिक व सांस्कृतिक लक्ष्य थे, वहीं इसके घरेलू राजनीतिक निहितार्थ भी थे। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक घमासान के बीच लक्षित समुदाय को प्रभावित करना भी मकसद बताया जाता है। बहरहाल यह मौका बांग्लादेश की आजादी की स्वर्ण जयंती का था। इससे जुड़े कार्यक्रमों में भारत की मुख्य भागीदारी बनती भी थी क्योंकि बांग्लादेश की आजादी के लिये जितना खून बांग्लादेशियों ने बहाया, उससे कम भारतीय जवानों व नागरिकों ने भी नहीं बहाया। एक मायने में बांग्लादेश की आजादी से हमारा गहरा रक्त संबंध भी है। यही वजह है कि चीन-पाक की नापाक जुगलबंदी और सांस्कृतिक-धार्मिक रिश्तों वाले नेपाल ने जब-तब भारत को आंख दिखाने की कोशिश की, लेकिन बांग्लादेश ने कभी भारत विरोधी तेवर नहीं दिखाये जो दोनों देशों के गहरे रिश्तों को ही दर्शाता है। निश्चय ही कोविड संकट के दौर में दोनों देशों की करीबी न केवल क्षेत्रीय विकास के लिये जरूरी है बल्कि क्षेत्र में निरंतर बदल रहे कूटनीतिक समीकरणों के लिहाज से भी जरूरी है। हाल के दिनों में बांग्लादेश ने पूरी दुनिया को अपनी कामयाबी से चौंकाया है। कभी हड़ताल, गरीबी, बेकारी, सांप्रदायिक तनाव और राजनीतिक अस्थिरता के लिये पहचाने जाने वाले बांग्लादेश ने कोरोना संकट में न केवल अपनी अर्थव्यवस्था को बचाया बल्कि तेज विकास दर भी हासिल की। रेडीमेड वस्त्रों के निर्यात में आज उसने अपनी पहचान बनायी है। दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में उसकी उपस्थिति पूरे परिदृश्य की गवाही देती है। हालांकि, इसके बावजूद हाल के दिनों में चीन ने जिस तेजी से बांग्लादेश की बड़ी परियोजनाओं में निवेश के जरिये घुसपैठ करके बंदरगाहों के निर्माण तक पहुंच बनायी है, वह भारत के लिये चिंता की बात है। वह बंगाल की खाड़ी तक अपनी दखल बनाने की कवायद में जुटा है।
बहरहाल, इसके बावजूद प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा से पूर्व बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना के विदेशी मामलों के सलाहकार ने स्पष्ट किया था कि उनका देश अपने सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी भारत की कीमत पर चीन से रिश्ते कायम करने में यकीन नहीं रखता। बांग्लादेश की कोशिश होगी कि चीन से संबंध कायम करते वक्त उसका भारत पर प्रतिकूल असर न पड़े। निस्संदेह बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत के महत्वपूर्ण योगदान को इस देश ने कभी भुलाया नहीं है। यही वजह है कि बंगबंधु शेख मुजीब-उर-रहमान की जन्मशती और आजादी की स्वर्णजयंती के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में भारत के प्रधानमंत्री मौजूद थे। इतना ही नहीं 21वीं सदी में दोनों देशों के साझा लक्ष्यों को हासिल करने के लिये भी इस यात्रा के दौरान व्यापार, ऊर्जा, स्वास्थ्य और विकासात्मक सहयोग के लिये बातचीत हुई और दोनों देशों के सहयोग के क्षेत्रों को लेकर पांच सहमति पत्रों पर भी हस्ताक्षर किये गये। साथ ही तीस्ता नदी समेत उन तमाम विवाद के मुद्दों को आपसी सहमति से सुलझाने पर सहमति भी बनी। ढाका से न्यू जलपाईगुड़ी को जोड़ने वाली यात्री ट्रेन को हरी झंडी मिलना इस बात का प्रतीक है कि दोनों देश नागरिकों के तौर पर भी करीब आ रहे हैं। वहीं कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा के घरेलू राजनीतिक निहितार्थ भी रहे हैं। दरअसल, प्रधानमंत्री द्वारा यात्रा के दौरान प्रसिद्ध शक्तिपीठ जेशोरेश्वरी काली मंदिर और मतुआ समुदाय के ओराकांड़ी स्थित मंदिर में पूजा-अर्चना को बंगाल के चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। बताया जाता है कि मतुआ समुदाय पश्चिम बंगाल की दर्जनों सीटों पर प्रभाव डालता है। ये समुदाय बांग्लादेश से आकर पश्चिम बंगाल में बसा था। बहरहाल, प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा दोनों देशों के संबंधों में एक दौर की शुरुआत कही जा सकती है जो क्षेत्रीय व वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में ही नहीं, विकास की साझी यात्रा में खासी मददगार साबित होगी जो दोनों देशों की एक जैसी चुनौतियों के मुकाबले में भी सहायक हो सकती है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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