भारत और सऊदी अरब के बीच कच्चे तेल की कीमतों को लेकर लंबे समय से चली आ रही असहमति हाल के सप्ताहों में खुलकर सामने आ गई। फरवरी में सऊदी अरब भारत को कच्चे तेल का निर्यात करने के मामले में शीर्ष चार देशों से बाहर हो गया और वहां से केवल 18 लाख टन तेल भारत आया। यानी फरवरी में इराक, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और नाइजीरिया ने सऊदी अरब की तुलना में भारत को अधिक तेल निर्यात किया। ऐसी खबरें भी सामने आई हैं कि भारत की सरकारी रिफाइनरी मई में सऊदी अरब से होने वाले तेल आयात में एक तिहाई से अधिक की कटौती करेंगी। आमतौर पर रिफाइनर हर महीने सऊदी अरब से 1.5 करोड़ बैरल कच्चा तेल खरीदती हैं जो मई में घटकर 95 लाख बैरल रह जाएगा। भारत पहले ही पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) से उत्पादन कटौती को लेकर शिकायत कर चुका है। कटौती का उद्देश्य कच्चे तेल की कीमतों को कम से कम इतना बढ़ाना था जिस स्तर पर वह इन देशों को आर्थिक रूप से व्यावहारिक नजर आए। सऊदी अरब मनमाने ढंग से कहीं और अधिक कटौती की योजना बना चुका था।
हालांकि सऊदी अरब ने गत सप्ताह ओपेक बैठक में कहा कि वह कटौती को धीरे-धीरे कम होगा। भारत लगातार प्रयास कर रहा है कि कच्चे तेल के क्षेत्र में खाड़ी देशों पर उसकी निर्भरता कम हो जाए। ओपेक देशों, खासकर उसके अनाधिकारिक नेता सऊदी अरब और भारत के बीच लंबे विवाद की जड़ें एशियाई प्रीमियम की धारणा में निहित हैं जिसके तहत यह माना जाता है कि भारत, चीन, जापान और कोरिया जैसे एशियाई देशों को प्रति बैरल तेल के लिए यूरोप और उत्तरी अमेरिका के ग्राहकों की तुलना में से अधिक कीमत चुकानी चाहिए। भारत के पेट्रोलियम मंत्री छह वर्ष से ओपेक देशों के साथ यह मुद्दा उठा रहे हैं और उनका दावा है कि प्रति बैरल दो से तीन डॉलर प्रीमियम राशि वसूली जा रही है। इस विषय पर हुआ अकादमिक शोध इतने अंतर का समर्थन नहीं करता लेकिन यह भी संभव है कि ज्यादातर समय समूह उत्तरी अमेरिका और कुछ यूरोपीय उपभोक्ताओं को मामूली रियायत देता है। हाल ही में जब सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी सऊदी अरामको ने अन्य बाजारों के लिए तेल के दाम कम किए और एशियाई देशों के लिए उसके दाम बढ़ाए तब भी भारत ने नाराजगी जताई थी। भारत के लिए दिक्कत यह है कि यदि वह ओपेक समूह से भिडऩा चाहता है तो उसे चीन और जापान समेत अन्य बड़े एशियाई आयातकों के साथ गठजोड़ बनाना होगा। इस दिशा में कुछ प्रयास किए गए हैं लेकिन साफ है कि बड़े एशियाई खरीदारों के बीच इतनी एकता नहीं है कि वे अभी ओपेक को प्रभावित कर सकें।
भारत सरकार को पेट्रोल और डीजल के ऊंचे दामों के लिए आलोचना का सामना करना पड़ रहा है और बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए वह ईंधन करों पर निर्भर है। ऐसे में उसका यह सोचना स्वाभाविक है बड़ा और बढ़ती खपत वाला आयातक होने के नाते उसे उचित कीमत पर कच्चा तेल मिले। फिर भी अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या किसी अन्य मुल्क से निपटने के लिए ऐसा कूटनीतिक विवाद उचित है। विदेश नीति बनाने का काम पेट्रोलियम मंत्रालय का नहीं है। पाकिस्तान के प्रबंधन, आतंकवाद विरोधी सहयोग और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवक जैसे मामलों में सऊदी अरब भारत का अहम साझेदार है। बड़ी तादाद में भारतीय प्रवासी भी वहां रहते हैं। उनके रोजगार से भारत को जरूरी विदेशी मुद्रा मिलती है। भारत और सऊदी अरब के व्यापक रिश्ते कीमतों को लेकर गैर कूटनीतिक लड़ाई से प्रभावित नहीं होने चाहिए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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