समय से पहले जीत का दावा करना पड़ा भारी (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता  

वायरस हमारे शरीरों में घुस रहा है, हजारों लोगों की जान ले रहा है, हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को ध्वस्त कर रहा है, इसके चलते चिकित्सकों, नर्सों, दवाओं और यहां तक कि ऑक्सीजन की कमी हो रही है। गत सप्ताह हमने कहा था कि यह मोदी सरकार का सबसे बड़ा संकट है और तब से अब तक यह संकट और बढ़ा है। अगले कुछ सप्ताह में यह विकराल रूप धारण कर लेगा।

संकट के साथ-साथ एकजुटता की मांग और ऐसे आह्वान बढ़ते जाएंगे कि 'यह आरोप-प्रत्यारोप का समय नहीं।' यह एक बड़ा राष्ट्रीय संकट है और हमें चुपचाप कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढऩा चाहिए। परंतु लोकतंत्र में राजनीति नहीं रुकती है और न ही राजनीतिक विश्लेषण और सवाल रुकते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी लोकतंत्र में एक मजबूत नेता मसलन डॉनल्ड ट्रंप, जायर बोलसोनारो, रेसेप तैयप अर्दोआन, बेंजामिन नेतन्याहू और नरेंद्र मोदी क्या करते हैं। वे अपने मूल जनाधार को संबोधित करते हैं और जब तक वह प्रसन्न है वे जीतते रहते हैं। कुछ चीजें ऐसी भी हैं जो मजबूत नेता कभी नहीं करता। मसलन वह नाकामी को कभी स्वीकार नहीं करता। उसे पराजय स्वीकार नहीं, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो।  उसका जनाधार उसे इसलिए पसंद करता है क्योंकि उसे लगता है कि वह गलती कर ही नहीं सकता। वह यह उम्मीद नहीं करता कि उनका नेता कहेगा, 'माफ करना दोस्तों। मुझसे गलती हो गई।' ऐसा करके वह स्वीकार करेगा कि वह भी एक आम आदमी है, न कि कोई अवतार। यही कारण है कि आपकी हर शुरुआत का अंत जीत के रूप में होना चाहिए और उसे 'मास्टर स्ट्रोक' करार दिया जाए। इस सप्ताह के आरंभ में प्रधानमंत्री का बरताव असामान्य रूप से बदला रहा। टेलीविजन पर अपने संक्षिप्त संदेश में उन्होंने कोई दावा या वादा नहीं किया और न ही उसमें कोई उपदेश था।  दूसरी बात, डॉ. मनमोहन सिंह के एक छोटे से पत्र ने सरकार को हिलाकर रख दिया। यह बात स्वास्थ्य मंत्री की आक्रामक प्रतिक्रिया से जाहिर होती है। यह सामान्य होता लेकिन अगले ही दिन सरकार ने टीकाकरण को लेकर लगभग वही घोषणाएं कीं जिनका सुझाव सिंह ने दिया था। एक मजबूत सरकार ऐसा नहीं करती।  तीसरी बात, प्रधानमंत्री मोदी ने पश्चिम बंगाल में अपने प्रचार का अंतिम चरण रद्द कर दिया। उन्होंने आखिरी दिन ऐसा किया यानी तब तक वह ऐसा करने की सोच रहे थे लेकिन महामारी का प्रकोप भारी पड़ा।


मोदी के अनुयायियों को लग रहा होगा कि यह अस्थायी है। वे मान रहे होंगे कि एक सप्ताह में पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे आने पर सुर्खियां बदल जाएंगी। यदि भारतीय जनता पार्टी वहां 100 का आंकड़ा भी पार कर लेती है तो इसे बड़ी जीत माना जाएगा। आखिरकार अब तक वह तीन के आंकड़े पर थी। यदि पार्टी बहुमत हासिल कर लेती है तो विशेषणों की बाढ़ आ जाएगी। बहरहाल, कोविड महामारी भाजपा के चुनावी प्रदर्शन पर हर हाल में भारी पड़ेगी। वायरस को लेकर कई ऐसी बातें हैं जो अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक भी अभी नहीं जानते लेकिन कुछ बातें हमें पता हैं। वायरस वोट नहीं देता। वह किसी की हार या जीत की परवाह भी नहीं करता। उसका ध्रुवीकरण संभव नहीं। वह आपकी आस्था और राजनीति से बीमारी, दुख और मौत फैलाता है। सियासी डींग से इसे खादपानी मिलता है। अमेरिका, ब्राजील और अभी हाल तक ब्रिटेन में लोगों को अपने नेताओं पर अत्यधिक भरोसे की कीमत चुकानी पड़ी। अब भारत में भी ऐसा होने का खतरा उत्पन्न है। हमने ऊपर जिन बदलावों का उल्लेख किया उन्हें देखकर लगता है कि मोदी यह समझ गए हैं। इन दिनों शेखी और डींग जैसे शब्दों का चलन बढ़ा है तो जनवरी में दावोस में विश्व आर्थिक मंच में प्रधानमंत्री के भाषण को दोबारा सुनिए। उसमें वायरस के खिलाफ जीत की स्पष्ट घोषणा और जश्न साफ महसूस किया जा सकता है। मोदी ने कहा था कि जब महामारी की शुरुआत हुई, पूरी दुनिया भारत को लेकर चिंतित थी, कहा जा रहा था कि संक्रमण की सूनामी आएगी। मोदी ने कहा कि लोग कह रहे थे कि 70-80 करोड़ भारतीय संक्रमित होंगे और 20 लाख से अधिक मारे जाएंगे। लेकिन भारत ने ऐसा नहीं होने दिया और मानवता को एक बड़ी त्रासदी से बचा लिया। मोदी ने बताया कि कैसे भारत ने बिना समय गंवाए क्षमताएं विकसित कीं, कैसे भारत में बने दो टीकों के बल पर दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ जबकि कई नए टीके आने हैं। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे भारत इन टीकों का निर्यात कर दुनिया को बचाएगा। इसके बाद फरवरी में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव को देखिए। यह वायरस के खिलाफ जीत की स्पष्ट घोषणा करता है, 'यह गर्व से कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काबिल, समझदारी भरे, प्रतिबद्ध और दूरदर्शी नेतृत्व में भारत ने न केवल कोविड को परास्त किया है बल्कि देश के नागरिकों में आत्म निर्भर भारत के निर्माण का भरोसा पैदा किया।' प्रस्ताव में कहा गया, 'पार्टी कोविड के खिलाफ जंग में विश्व के समक्ष भारत को विजेता देश के रूप में प्रस्तुत करने के लिए अपने नेतृत्व को सलाम करती है।' प्रस्ताव में कहा गया कि दुनिया ने भारत की उपलब्धि को सराहा और साथ ही ताली और थाली बजाने, दिये जलाने अस्पतालों पर पुष्पवर्षा करने जैसी अपीलों की भी सराहना की। भारत का कद बढ़ा है और टीका निर्माण के साथ वह कोविड पर संपूर्ण जीत की ओर अग्रसर है।


आप कह सकते हैं कि दावोस में तो केवल एक मंच पर भाषण दिया गया जहां हर नेता अपनी बात दमदार ढंग से रखता है जबकि दूसरा एक पार्टी प्रस्ताव था तो ऐसे में क्या अपेक्षा की जाए? ऐसे में कोई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के और अधिक भावनात्मक प्रस्ताव का जिक्र कर सकता है जैसे डीके बरुआ का 'इंदिरा इज इंडिया' कहना। समाचार चैनलों के लिए यह बहस का बिंदु हो सकता है लेकिन वायरस न पढ़ता है, न सुनता है और न ध्यान देता है। वह केवल घात लगाए रहता है कि आप कब लापरवाह होते हैं। फरवरी के मध्य में संक्रमण बढऩे लगा। इसकी शुरुआत तीन विपक्ष शासित राज्यों केरल, पंजाब और महाराष्ट्र से हुई। खासकर महाराष्ट्र में तो शिवसेना के साथ हिंदुत्व के विभाजित परिवार का झगड़ा साफ दिखा। राज्य सरकार की लानत-मलामत की गई, केंद्र की टीम भेजी गई और जब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि वह ज्यादा टीकाकरण चाहते हैं तो उनका मजाक उड़ाया गया। इस बीच हमने 'हॉर्वर्ड के अध्ययन' के बारे में सुना जिसमें उत्तर प्रदेश में कोविड के खिलाफ योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रदर्शन की सराहना की गई। लेकिन एक वायरस जो राष्ट्र की सीमा नहीं जानता वह कुछ राज्यों तक क्यों सीमित रहेगा? जब यह दूसरी जगहों पर फैला तो भाजपा को दिक्कत हुई। जिस वायरस के खिलाफ जीत का जश्न मनाया जा चुका है वह वापस कैसे आ सकता है?


कोई भी यहां तक कि नरेंद्र मोदी भी दूसरी लहर को नहीं रोक सकते थे, खासकर तब जब वायरस के नए स्वरूप तेजी से सामने आ रहे थे। अगर हम जीत का जश्न नहीं मनाते तो शायद हम बेहतर तैयारी कर पाते। हमारे सामने संकेत मौजूद थे।


टीकाकरण कार्यक्रम निहायत धीमी गति से चला और यहां तक शिवरात्रि, गुड फ्राइडे और होली जैसी छुट्टियों पर यह बंद भी रहा। ज्योतिषियों के कहने पर कुंभ मेला एक साल पहले आयोजित किया गया। प्रधानमंत्री अभी हाल तक पश्चिम बंगाल में रैली करके कह रहे थे कि उन्होंने इससे पहले इतनी तादाद में लोगों को संबोधित नहीं किया। मनमोहन सिंह का पत्र भी उसी दिन आया।


उसके बाद सुधार के प्रयास शुरू हुए। लेकिन हजारों लोग मारे जा रहे हैं। बेहतर गति से टीकाकरण करके और समय पर ऑक्सीजन तथा अहम दवाओं की व्यवस्था करके इनमें से कई जान बचाई जा सकती थीं। तब शायद हम अपने श्मशानों और कब्रिस्तानों में लाशों की भीड़ के कारण वैश्विक शर्मिंदगी से बच सकते थे। तब शायद हम जर्मनी से ऑक्सीजन जनरेटर नहीं मंगा रहे होते और टीका निर्यात की प्रतिबद्धताओं को रद्द करके विदेशी टीके आयात करने पर विचार नहीं कर रहे होते।


हम साथी देशवासियों की सामूहिक मौत और दुख के बीच इन सवालों के जवाब तलाशने का प्रयास समाप्त नहीं होना चाहिए। कोविड की शक्तिशाली दूसरी लहर बस शुरू ही हुई है। सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ दिख रही है। मोदी को कुछ ऐसा करना होगा जैसा बोरिस जॉनसन ने ब्रिटेन में किया: यानी महामारी को कुचलने के लिए तेज गति से टीकाकरण। हमें दूसरे के नुकसान में अपनी खुशी तलाशने से बाज आना होगा।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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