करीब साढ़े चार महीने से चल रहे किसान आंदोलन में कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो आमतौर पर अब तक इसका स्वरूप शांतिपूर्ण ही रहा है। एक लोकतांत्रिक राज और समाज में विरोध और आंदोलन के तौर-तरीके ऐसे ही होते हैं। विडंबना यह है कि इस क्रम में कई बार सरकार और प्रशासन तो कभी आंदोलनकारियों की ओर से ऐसा रुख अख्तियार कर लिया जाता है, जिससे हालात बेकाबू होने लगते हैं।
जाहिर है, यह सरकार और आंदोलनकारियों, दोनों के लिए कोई आदर्श स्थिति नहीं है। पिछले कुछ दिनों के दौरान हरियाणा के कई इलाकों में किसान आंदोलनकारियों ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं के प्रति जो सख्त रुख अपनाया हुआ है, वह दोनों पक्षों के बीच बढ़ती तल्खी को दर्शाता है। यों यह विरोध कई इलाकों में तीखा होता दिख रहा है, मगर हाल में रोहतक और सिरसा में भाजपा नेताओं के विरोध के क्रम में किसान जिस तरह उग्र हो गए, उससे यही लगता है कि आंदोलन से संयम के तत्त्व अब शायद कम हो रहे हैं।
गौरतलब है कि कुछ दिन पहले रोहतक में एक कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को किसानों के विरोध प्रदर्शन की वजह से अपना हेलीकॉप्टर उतारने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। दूसरी ओर, सिरसा में नगर परिषद् के अध्यक्ष पद पर चुनाव के दौरान किसानों को जब भाजपा सांसद सुनीता दुग्गल और विधायक गोपाल कांडा के पहुंचने की खबर मिली तो वे उनके खिलाफ लामबंद हो गए।
दोनों ही जगहों पर प्रदर्शन इस कदर उग्र हो गया कि पुलिस को स्थिति पर काबू करने के लिए सख्ती बरतनी पड़ी। जाहिर है, किसानों के भीतर भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं को लेकर एक तरह का आक्रोश पैदा हो गया है। लेकिन लंबे समय से शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा आंदोलन अगर हिंसक होने के स्तर तक उग्र होता है तो इसका क्या हासिल होगा! क्या इससे सरकार ओर पुलिस को कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के नाम पर सख्ती बरतने का तर्क नहीं मिलेगा? वहीं इन दलों के कुछ नेताओं की ओर से अक्सर किसानों और आंदोलन के बारे में जिस तरह की अवांछित और गैरजरूरी टिप्पणियां सामने आई हैं, उस पर किसानों की प्रतिक्रिया को भी आधार मिल जाता है।
सवाल है कि ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे हैं कि किसान अब कुछ खास पार्टियों के नेताओं का विरोध करने के लिए उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों और यात्राओं तक को बाधित करने लगे हैं! दरअसल, कई महीने से चल रहे इस आंदोलन के दौरान किसानों के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच आखिरी बातचीत बाईस जनवरी को हुई थी। उसमें किसी बिंदु पर सहमति तो नहीं बन पाई, उल्टे स्थिति यहां तक पहुंच गई कि उसके बाद से अब तक कोई बैठक नहीं हुई। जहां संवाद का क्रम टूट जाता है, वहां एक दूसरे पक्ष को धैर्य से समझने की गुंजाइश भी कम हो जाती है।
किसानों की मांग है कि तीनों नए कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द किया जाए और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर कानून बने। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार को इस पर गौर करना जरूरी नहीं लगा और न वह नए कृषि कानूनों पर अपने पक्ष से किसानों को सहमत कर पाई है। ऐसे में अगर किसानों को लगता है कि ये कानून आम लोगों के हित में नहीं हैं तो सरकार को उनकी मांगों पर विचार करना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि लोकतंत्र अलग-अलग विचारों को जगह देने के सिद्धांत पर ही टिका रहता है और आखिर यह व्यापक जनता के हित के लिए ही होता है।
सौजन्य - जनसत्ता।
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