हालांकि सरकार की ओर से कोई औपचारिक स्वीकारोक्ति नहीं आई है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) द्वारा निर्मित ऑक्सफर्ड/एस्ट्राजेनेका के टीके के निर्यात में कटौती की है। एसआईआई प्रतिदिन टीके की 24 लाख खुराक बना रही है और लगभग सभी टीके घरेलू इस्तेमाल के लिए रखे जा रहे हैं। यह पुरानी नीति से एकदम उलट है। इससे उन विकासशील देशों में चिंता बढ़ी है जो टीकों की उपलब्धता के लिए एसआईआई के टीका गठजोड़ 'गावी' के साथ अनुबंध पर निर्भर थे। बदली परिस्थितियों में इन देशों के लिए टीकाकरण की शुरुआत करना आसान नहीं होगा। गावी के हालिया आंकड़े बताते हैं कि प्रमुख तौर पर ऑक्सफर्ड का टीका ही उसे नहीं मिल पा रहा है जबकि फाइजर और बायोनटेक जैसी कंपनियों के अनुबंध समय पर पूरे हो रहे हैं। भारतीय नीति निर्माताओं के सामने बड़ी चिंता यह है कि कुछ प्रमुख राज्यों और शहरों में अचानक संक्रमण के मामले तेजी से बढ़े हैं। मुंबई, पुणे और पिछले पखवाड़े दिल्ली में मामले चिंताजनक रूप से बढ़े हैं।
इसके बावजूद तथ्य यह है कि भारत जो स्वयं को दुनिया की टीका फैक्टरी के रूप में पेश कर रहा था, अब शायद वह भी टीके के मामले में राष्ट्रवाद का शिकार हो जाएगा। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए हुआ क्योंकि हम आपूर्ति शृंखला को मजबूत बनाने और महामारी के समुचित प्रबंधन में नाकाम रहे हैं। अमेरिका और ब्रिटेन ने भी अपने देश में टीकाकरण को प्राथमिकता दी है और बाकायदा निर्यात पर प्रभावी प्रतिबंध लगाए हैं। यूरोपीय संघ इकलौता बड़ा उत्पादक है जो अपनी प्रतिबद्धताएं निभा रहा है और अपनी फैक्टरियों में बनने वाले टीके निर्यात कर रहा है। परंतु इसकी सराहना के बजाय यूरोपीय संघ की आलोचना हो रही है। यूरोपीय संघ में बने कुछ टीकों से लाभान्वित अमेरिकी भी यूरोपीय संघ के टीकों में गड़बड़ी बता रहे हैं।
महामारी के इस दबाव के बीच वैश्विक आपूर्ति शृंखला की मजबूती को लेकर भी अनिवार्य रूप से सवाल किए जाएंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी अन्य उत्पाद की तरह टीकों पर भी मुक्त व्यापार की दलील लागू होनी चाहिए। किसी भी उत्पाद को ऐसे देश में बनाना समझदारी भरा कदम है जहां प्रक्रिया के हर चरण पर तुलनात्मक लाभ हो और फिर जहां से उसे विदेशों में निर्यात किया जा सके। यह किफायती भी होगा और निष्पक्ष भी। लेकिन व्यवहार में देखें तो घटनाएं ऐसे नहीं घट रही हैं। साथ ही महामारी के दौरान यह पहला अवसर नहीं है जब मुक्त व्यापार के नियमों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। पीपीई और कोविड-19 की औषधियों के समय भी यह दिक्कत आई थी। कई अन्य कमियां भी उजागर हुई हैं। चीन में निर्मित औषधीय तत्त्वों पर निर्भरता ने भी दुनिया भर को चिंतित किया है। चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी जंग के कारण सेमीकंडक्टर के उत्पादन में रुकावट आई जिससे क्रिप्टोकरेंसी और वाहन जैसे क्षेत्रों में दिक्कत पैदा हुई। गत सप्ताह एक कंटेनर पोत के स्वेज नहर में अवरुद्ध हो जाने से दुनिया के सबसे अधिक यातायात वाले व्यापारिक मार्ग की कमी एक बार फिर उजागर हुई।
यह स्पष्ट है कि महामारी के बाद आपूर्ति शृंखला को मजबूत बनाना और समुचित विविधता लाना सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। आपूर्ति शृंखला में विविधता लाने से लागत कम होगी और स्थिरता आएगी। मुक्त व्यापार के बुनियादी सिद्धांत को लागू करना अत्यंत आवश्यक है। टीकों को लेकर बनी राष्ट्रवाद की भावना को चलन नहीं बनने देना चाहिए। महामारी ने वैश्वीकरण की भावना पर जो दबाव बनाया है उससे सबसे अधिक प्रभावित भारत समेत उभरती दुनिया के देश ही होंगे।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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