देशवासियों की आय में अस्थिरता बनी वृद्धि की नई समस्या ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

टीसीए श्रीनिवास-राघवन  

अर्थव्यवस्था में रिकवरी का दौर शुरू होने के साथ ही सरकार को स्थिर मध्यम अवधि की निवेश एवं उपभोग नीति पर चलने का फैसला करना पड़ा है। अभी तक उसकी प्राथमिकता  उत्पादन में नई जान फूंकने पर ही रही है। उस रवैये की मियाद अब पूरी हो चुकी है। नए निवेश के तरीके को छोड़कर करने के लिए बहुत कुछ बचा भी नहीं है।


लेकिन उत्पादन एवं निवेश के साथ उपभोग को भी पुराने स्तर पर ले जाने की जरूरत है। यह काम कहीं अधिक मुश्किल है और अनुमानित आधार या प्रारूप के अभाव में ऐसा करना कहीं अधिक मुश्किल है।


इस समय हमारे पास कीन्सवाद की महज वह सोच रह गई है कि 'उन्हें पैसे कमाने दो'। लेकिन यह 'सुस्त बैंकिंग' के समकक्ष है। इस संदर्भ में काफी समय पहले भुलाए जा चुके एक सिद्धांत की तरफ मैं ध्यान दिलाता हूं। कुछ समय पहले आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के शोध निदेशक निरंजन राज्याध्यक्ष ने एक छात्र के ट्वीट की तरफ ध्यान आकृष्ट कराया था। उस ट्वीट में मिल्टन फ्राइडमैन की 'स्थायी आय परिकल्पना' का जिक्र किया गया था जिसका प्रतिपादन 1950 के दशक में किया गया था। यह परिकल्पना इस बारे में है कि लोग अपने उपभोग के बारे में फैसला करते समय पूरी जिंदगी में होने वाली अपनी कमाई का अनुमान लगाते हैं और फिर उसके हिसाब से अपने उपभोग को समायोजित करते हैं। इस तरह सस्ते कर्ज, कर कटौती एवं तय समय से पहले होने वाली पदोन्नति जैसे आय में कृत्रिम उछाल लाने वाले साधनों का सिर्फ अस्थायी असर ही होगा। अधिक स्थायी एवं दूरगामी असर के लिए आपको पूरे जीवन में आय की संभावनाओं पर गौर करना होता है। यह भविष्य की नीति के लिए अहम अंतर्दृष्टि है।


मैंने भारत में खपत के नए समाजशास्त्र के बारे में पिछले सितंबर में एक लेख लिखा था। मेरी संकल्पना यह थी कि शहरीकरण ने एक संयुक्त परिवार और पूरी तरह एकांगी परिवार के बीच एक हाइब्रिड परिवार को जन्म दिया है। इसका अंतिम परिणाम यह है कि जहां परिवार के एक या अधिकतम दो सदस्य ही कमा रहे हैं, वहीं कमाने वाले कई दूसरे लोगों पर लगने वाली लागत अब केवल एक या दो अर्जकों तक ही केंद्रित हो चुकी है। सिर्फ यही नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार एवं मनोरंजन के लोचरहित मदों में भारी वृद्धि भी देखी गई है। इससे बचत एवं खर्च दोनों में गिरावट का नया पैटर्न सामने आया है।


मेरी नजर में 2020 के बाद की दुनिया में इसे नई महत्ता मिली है। इसकी वजह यह है कि औपचारिक अर्थव्यवस्था में नौकरियों से होने वाली आय का अनुपात अब परामर्श जैसे नौकरी से इतर कार्यों से होने वाली आय की तुलना में धीरे-धीरे कम हो जाएगा। अमेरिकी विद्वान इसे 'गिग इकॉनमी' कहते हैं जिसमें 80-90 फीसदी आय नौकरियों के जरिये नहीं बल्कि शुल्कों से होती है।


श्रम बाजार में मौजूद प्रतिस्पद्र्धा स्तर को देखते हुए यह बदलाव आय पर नीचे की ओर जाने वाला दबाव डालता है। हम वर्ष 2011 से ही ऐसा होते हुए देख रहे हैं। मेरी सीमित समझ में यह पहलू सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर में गिरावट की व्याख्या सही ढंग से करता है।


जरा इस पर सोचिए। अगर आपके परिवार की आय स्थिर नहीं है और परामर्श एवं सेवा शुल्कों पर ही निर्भर करती है तो फिर आप अपनी जिंदगी भर की कमाई के बारे में किस तरह कोई अनुमान लगा सकते हैं?


यह सवाल जितना अटपटा लगता है, उतना है नहीं। असल में, यह अनौपचारिक क्षेत्र में एक चलन बन चुका है। इस तरह भारत के 60 करोड़ कमाने वालों में से 55 करोड़ लोगों के पास कोई स्थिर मासिक आय ही नहीं होती है। हां, वे भी कमाते हैं लेकिन वह आय रुक-रुक कर होती है।


डॉक्टर, आर्किटेक्ट, खिलाड़ी एवं अन्य पेशेवरों जैसे अत्यधिक कुशल लोग बहुत कमाते हैं। लेकिन छोटे दुकानदारों जैसे बहुतेरे लोग बहुत कम कमाते हैं। और सिर्फ यही नहीं है। उनकी कतार में रोजाना ऐसे लोग भी जुड़ते रहते हैं जिनकी आय सिकुड़ चुकी है। इस तरह हम कम आय के साथ बेहद अस्थिर जाल में फंस चुके हैं। इस तरह हम श्रम बाजार के मामले में फिर से दूसरे विश्व युद्ध से पहले के दौर में पहुंच चुके हैं।


दूसरे शब्दों में, उपभोग समस्या आय में काफी अस्थिरता होने से जुड़ी हुई है। यह कुल आय या इसके वितरण का एक हिस्सा भर नहीं है। यह अस्थिरता का एक अंग है। यह ऐसा बड़ा बदलाव है जो कोरोनावायरस और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी नई तकनीकें लेकर आई हैं और अगले पांच वर्षों में और भी तमाम बदलाव लेकर आएंगी। यह ऐसी समस्या है जिससे नीति को निपटना है। आय के इतना अस्थिर रहते समय खपत आखिर किस तरह बढ़ाई जा सकती है? इससे कहीं अधिक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि क्या अस्थिरता को पूरी तरह खत्म या भोथरा कर पाना संभव है? भारत के सियासी तबके ने निम्न-उत्पादकता वाली नौकरियों का सबसे बड़ा नियोक्ता बनकर ऐसा करने की कोशिश भी की है। लेकिन उसकी राजकोषीय सीमाओं तक बहुत पहले ही पहुंचा जा चुका है।


इसका सही जवाब इस स्वीकारोक्ति में है कि खपत बढऩे से होने वाली वृद्धि के पूर्ण अभाव या व्यापक विचलन होने पर हम सात फीसदी से कम वृद्धि के एक लंबे या स्थायी दौर में भी पहुंच चुके हैं। अगर तीसरा हिस्सा कृषि से आता है तो इसका बाकी दो क्षेत्रों के लिए क्या मायने है?

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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