एक बार फिर छत्तीसगढ़ स्थित बीजापुर के जंगलों में नक्सलवादियों ने 22 जवानों को शिकार बनाया है। कैसी विडंबना है कि तीन सुरक्षा बलों के दो हजार जवान जिन नक्सलियों के सफाये के लिये गये थे उन्हीं की साजिश का शिकार बन गये। जाहिर तौर पर यह कारगर रणनीति के अभाव और खुफिया तंत्र की नाकामी का ही नतीजा है कि नक्सली हमारे जवानों को जब-तब आसानी से अपना निशाना बनाते हैं। जो सत्ताधीशों के उन दावों की पोल खोलता है, जिसमें वे नक्सलवाद के खात्मे के कगार पर होने की बात करते हैं। उनकी जड़ों के सही आकलन न कर पाने का ही नतीजा है कि तीन दशकों से हर बार नक्सलवादी अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं। शनिवार को बीजापुर व सुकमा की सीमा पर हुए हमले में सुरक्षा बलों को भारी क्षति उठानी पड़ी और वास्तविक तस्वीर सामने आने में वक्त लगा। रविवार को जाकर स्थिति स्पष्ट हुई है वास्तव में चौबीस जवान मारे गये हैं। जंगलों में जवानों के छितरे शव नक्सलियों की क्रूरता की कहानी कहते थे। अभी हाल ही में जवानों को ले जा रही बस पर हमले में भी पांच जवान मारे गये थे। देश छह अप्रैल, 2010 को नहीं भूला है जब दंतेवाड़ा में नक्सलियों के बड़े हमले में 76 जवान शहीद हो गये थे। तब भी नक्सलियों के सफाये की बातें हुई और योजनाएं बनी, लेकिन नक्सलियों की मजबूती बढ़ती गई। वर्ष 2013 को भी नहीं भुलाया जा सकता है जब छत्तीसगढ़ की जीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को घेर कर नक्सलियों ने क्रूरता दिखायी थी। तब भी कई दिग्गज कांग्रेसियों समेत तीस लोगों के मरने की खबर आई थी। बीते वर्ष भी सुकमा में 17 जवानों की हत्या नक्सलियों ने कर दी थी। दरअसल, हर साल कुछ बड़े हमले करके नक्सली अपनी उपस्थिति का अहसास तंत्र को कराते रहे हैं। उन दावों को नकारते हैं कि नक्सलवाद आखिरी सांस ले रहा है।
ये सुनियोजित हमले यह भी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है। इनके न हौसले कम होते हैं और न ही आधुनिक हथियारों व संसाधनों में कोई कमी आई है। गोला-बारूद की पर्याप्त आपूर्ति जारी है। वे छापामार युद्ध में इतने पारंगत हैं कि दो हजार प्रशिक्षित व सशस्त्र जवानों के समूह को आसानी से अपना निशाना बना लेते हैं। उनका खुफिया तंत्र सरकारी खुफिया तंत्र पर भारी पड़ता है। निस्संदेह जटिल भौगोलिक परिस्थितियां हमारे जवानों के लिये मुश्किल बढ़ाती हैं। इससे जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। लेकिन हमें इन हालातों से निपटने के लिये उन्हें प्रशिक्षित करने की जरूरत है। केंद्र राज्यों में बेहतर तालमेल से रणनीति बनाने की जरूरत है। अन्यथा जवानों के मारे जाने का सिलसिला यूं ही जारी रहेगा। सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्यों दशकों के बाद नक्सलवाद से निपटने की हमारी रणनीति कारगर नहीं हो रही है। कहीं न कहीं हमारी रणनीति की खामियां नक्सलियों को हावी होने का मौका देती हैं। खुफिया तंत्र की नाकामी भी एक बड़ी वजह है। यह भी एक विडंबना ही है कि नक्सलियों से बातचीत की कोई गंभीर पहल होती नजर नहीं आती। हमें उन कारणों की पड़ताल भी करनी है, जिसके चलते नक्सलवाद को इन इलाकों में जन समर्थन मिलता है। हमें सोचना होगा कि क्यों इन इलाकों में गरीब व हाशिये पर गये लोग सरकार के बजाय नक्सलियों का पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इस समस्या का सामाजिक व आर्थिक आधार पर भी मंथन करना होगा। यह भी कि इन दुर्गम इलाकों में विकास की किरण क्यों नहीं पहुंच पायी है। सरकार का विश्वास लोगों में क्यों कायम नहीं हो पाता। दरअसल, नक्सली समस्या के सभी आयामों पर विचार करके समग्रता में समाधान निकालने की कोशिश होनी चाहिए। केंद्र व राज्य सरकारों के बेहतर तालमेल से ही यह संभव हो पायेगा। अन्यथा देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये यह खतरा और गहरा होता जायेगा।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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